जानिए, टमाटर की फसल में स्टेकिंग (सहारा देने की विधि) आवश्यकता क्यों?

टमाटर का पौधा एक तरह की लता होती है, जिसके कारण पौधे फलों का भार सहन नहीं कर पाते हैं और नमी की अवस्था में मिट्टी के संपर्क में रहने से सड़ जाते हैं। जिस कारण से फसल नष्ट हो जाती हैं। इससे किसान को भारी नुकसान उठाना पड़ता है। साथ ही पौधे के नीचे गिरने से कीट और बीमारी भी अधिक लगती हैं। इसलिए टमाटर को नीचे गिरने से बचाने के लिए तार से बांध कर सुरक्षित रखते हैं।

मेड़ के किनारे-किनारे दस फीट की दूरी पर दस फीट ऊंचे बांस के डंडे खड़े कर दिए जाते हैं। इन डंडों पर दो-दो फीट की ऊंचाई पर लोहे का तार बांधा जाता है। उसके बाद पौधों को सुतली की सहायता से उन्हें तार से बांध दिया जाता है जिससे ये पौधे ऊपर की ओर बढ़ते हैं। इन पौधों की ऊंचाई आठ फीट तक हो जाती है, इससे न सिर्फ पौधा मज़बूत होता है, फल भी बेहतर होता है। साथ ही फल सड़ने से भी बच जाता है।

स्टेकिंग लगाने का तरीका और फायदे:-

👉🏻 स्टेकिंग करने के लिए, मेड़ के किनारे-किनारे 10 फीट की दूरी पर 10 फीट ऊंचे बांस के डंडे खड़े कर दिए जाते है। 

👉🏻इन डंडे पर 2-2 फीट की ऊंचाई पर लोहे का तार बांध दिया जाता है। उसके बाद पौधों को सुतली  की सहायता से उन्हें तार से बांध दिया जाता है, जिससे ये पौधे ऊपर की और बढ़ते हैं।

👉🏻पौधों की ऊंचाई 5-8 फीट तक हो जाती हैं, इससे न सिर्फ पौधा मजबूत होता है, बल्कि फल भी बेहतर होता है। साथ ही फल सड़ने से भी बच जाता है। इस विधि से खेती करने पर पारम्परिक खेती की तुलना में अधिक लाभ प्राप्त कर सकते है। 

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सोयाबीन में सफेद ग्रब को नियंत्रित करने के उपाय

सफेद लट (गिडार) की पहचान:- सफेद लट सफेद रंग का कीट है जो सर्दियों में खेत में सुषुप्तावस्था में ग्रब के रूप में रहता है। यह मिट्टी में रहने वाला बहुभक्षी कीट है जो मिट्टी के कार्बनिक पदार्थों को अपने भोजन के रूप में ग्रहण करता है। यह अलग अलग क्षेत्रों में अलग अलग नामों से जाना जाता है, जैसे सफ़ेद गिडार, गोबर का कीड़ा, गोबरिया कीड़ा आदि, हालांकि वैज्ञानिक रूप से इसे वाइट ग्रब या सफ़ेद लट कहते हैं। 

क्षति के लक्षण:– आमतौर पर प्रारंभिक रूप में ये सोयाबीन की जड़ों को नुकसान पहुंचाते हैं। सफेद ग्रब के लक्षण पौधे पर देखे जा सकते हैं, जैसे कि पौधे का एक दम से मुरझा जाना, पौधे की बढ़वार रूक जाना और अंत में पौधों की मृत्यु हो जाना इसका मुख्य लक्षण है।

नियंत्रण :- 

  • फसल एवं खेत के आस पास की भूमि को साफ़ सुथरा रखें। 

  • मानसून की पहली बारिश के बाद शाम 7 बजे से रात 10 के बीच एक लाइट ट्रैप/एकड़ स्थापित करें। 

  • ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करें। 

  • फसल बुवाई के पूर्व अच्छी तरह सड़ी हुई गोबर की खाद का ही प्रयोग करें।

  • इस कीट के नियंत्रण के लिए जून और जुलाई माह के शुरुआती सप्ताह में कालीचक्र (मेटाराइजियम एनीसोप्ली) @ 2 किलो + 50-75 किलो अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद के साथ मिलाकर प्रति एकड़ की दर से खाली खेत में भुरकाव करें।

  • सफेद ग्रब के नियंत्रण के लिए रासायनिक उपचार भी किया जा सकता है। इसके लिए डेनिटोल (फेनप्रोपाथ्रिन 10% ईसी) @ 500 मिली/एकड़, डेनटोटसु (क्लोथियानिडिन 50.00% डब्ल्यूजी) @ 100 ग्राम/एकड़ को मिट्टी में मिला कर उपयोग करें।

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जानिए, कपास समृद्धि किट का उपयोग कब और कैसे करें?

👨🏻‍🌾किसान भाइयों, अभी हाल ही में मौसम की पहली बारिश ⛈️ हुई है और इस समय कपास की फसल 🌱 लगभग 15 -25 दिन के बीच हो चुकी है, इस समय आवश्यक है की फसल के बेहतर विकास के लिए ग्रामोफ़ोन की विशेष पेशकश, ग्रामोफ़ोन कपास समृद्धि किट का उपयोग खेत में आवश्यक से करें।

इस प्रकार करें किट का उपयोग:- 

  • 🌱 कपास एक महत्वपूर्ण रेशेदार और नकदी फसल है।

  • 🌱 कपास में बुवाई के 20-25 दिन बाद, कपास समृद्धि किट (टीबी 3 किलोग्राम + ताबा जी 4 किलोग्राम + मैक्समाइको 2 किलोग्राम  + कॉम्बैट 2 किलोग्राम) को 50 किग्रा अच्छी तरह सड़ी हुई गोबर की खाद के साथ मिलाकर प्रति एकड़ के हिसाब से इसका खेत में भुरकाव करें। इस किट का उपयोग करने से फसल का विकास बहुत अच्छा होता है और उत्पादन में वृद्धि होती है।

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जानें प्राकृतिक खेती के महत्वपूर्ण सिद्धांत

Natural farming

प्राकृतिक खेती क्या है? – प्राकृतिक खेती (natural farming) देसी गाय पर आधारित प्राचीन खेती पद्धति है। जिसमें रासायनिक उर्वरकों और रसायनों के दूसरे उत्पाद का विकल्प के रूप में देसी गाय का गोमूत्र और गोबर  का उपयोग फसल उत्पादन में किया जाता है। यह भूमि के प्राकृतिक स्वरूप को बनाए रखती है। प्राकृतिक खेती में रासायनिक कीटनाशक का उपयोग नहीं किया जाता है। इस प्रकार की खेती में जो तत्व प्रकृति में पाए जाते है, उन्हीं को कीटनाशक के रूप में काम में लिया जाता है।

प्राकृतिक खेती में खाद के रूप में गोबर, गौ मूत्र, जीवाणु खाद, फ़सल अवशेष द्वारा पौधों को पोषक तत्व दिए जाते हैं। प्राकृतिक खेती में प्रकृति में उपलब्ध जीवाणुओं, मित्र कीट और जैविक कीटनाशक द्वारा फ़सल को हानिकारक सूक्ष्म जीव और कीट से बचाया जाता है।

आइये  जानते है प्राकृतिक खेती के चार सिद्धांत  

👉🏻खेतों में कोई जुताई नहीं करना, यानी न तो उनमें जुताई करना, और न ही मिट्टी को  पलटना है । धरती अपनी जुताई स्वयं स्वाभाविक रूप से पौधों की जड़ों के प्रवेश तथा केंचुओं व छोटे प्राणियों, तथा सूक्ष्म जीवाणुओं के जरिए कर लेती है।

👉🏻किसी भी तरह की तैयार खाद या रासायनिक उर्वरकों का उपयोग न किया जाए। इस पद्धति में हरी खाद और गोबर की खाद को ही उपयोग में लाया जाता है।

👉🏻निराई-गुड़ाई न की जाए। न तो हल से, न शाकनाशियों के प्रयोग द्वारा। खरपतवार मिट्टी को उर्वर  बनाने तथा जैव-बिरादरी में संतुलन स्थापित करने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। बुनियादी सिद्धांत यही है कि खरपतवार को पूरी तरह समाप्त करने की बजाए नियंत्रित किया जाना चाहिए।

👉🏻रसायनों पर बिल्कुल निर्भर न करना है। जोतने तथा उर्वरकों के उपयोग जैसी गलत प्रथाओं के कारण जब से कमजोर पौधे उगना शुरू हुए, तब से ही खेतों में बीमारियां लगने तथा कीट-असंतुलन की समस्याएं खड़ी होनी शुरू हुई। छेड़छाड़ न करने से प्रकृति-संतुलन बिल्कुल सही रहता है।

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जानिए, खरीफ में प्याज की नर्सरी कैसे तैयार करें?

👉🏻किसान भाईयों, प्याज की नर्सरी के लिए क्यारी ऐसे स्थान पर बनानी चाहिए,  जहां पर जल भराव नहीं होता हो।

👉🏻जल निकासी की उत्तम व्यवस्था होनी चाहिए। 

👉🏻भूमि समतल तथा उपजाऊ होनी चाहिए। 

👉🏻आसपास छायादार वृक्ष नहीं होने चाहिए। 

👉🏻पौध तैयार करने के लिए 3-7 मीटर लम्बी तथा 1 मीटर चौड़ी क्यारी भूमि से लगभग 15-20 सेमी ऊँची बना लेनी चाहिए। उपरोक्त आकार की 20  क्यारियाँ एक एकड़  में रोपण के लिए पर्याप्त होती हैं।

👉🏻10 किलो गोबर की खाद के साथ 25 ग्राम ट्राइकोडर्मा विरिडी (रायजो केयर) और 25 ग्राम (सीवीड, अमीनो एसिड, ह्यूमिक एसिड, मायकोरायझा)  (मैक्समायको) प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से मिट्टी में समान रूप से मिला लें और 1 मीटर चौड़ाई तथा 3-7 मीटर लम्बाई के जल निकासी सुविधा के साथ ऊंची क्यारियां तैयार करें। 

👉🏻बुवाई 1- 2 सेंटीमीटर की गहराई एवं 5 सेमी की दूरी पर पंक्तियों में की जानी चाहिए  

👉🏻क्यारी तैयार होने के बाद बीज को फफूंदनाशक दवा जैसे– कार्बेन्डाजिम 12% + मैनकोज़ेब 63% WP (2.0-2.5 ग्राम प्रति किग्रा बीज) से अवश्य उपचारित कर लेना चाहिए ताकि प्रारम्भ में लगने वाली बीमारियों के प्रकोप से पौधे बच सकें। 

👉🏻इस प्रकार उपचारित बीज को तैयार क्यारियों में बुआई करें। 

👉🏻बीज बोने के तुरंत बाद क्यारी में फव्वारे या हजारे से हल्की सिंचाई करना चाहिए तथा इसके बाद एक दिन के अंतराल पर सिंचाई करते रहना चाहिए। 

👉🏻इस तरह से डाली गई नर्सरी लगभग 35-40 दिन में रोपाई के लिए तैयार हो जाती है।

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जानिए, खेती में बीज उपचार का महत्व

👉🏻किसान भाइयों, खेती के लिए बीज उपचार बहुत ही आवश्यक होता है। जिससे बीज जनित और मिट्टी जनित रोग की रोकथाम होती है।  

👉🏻देश में फसलों के 70 से 80 प्रतिशत किसान बीज नहीं बदलते है और पुराने बीजों का ही इस्तेमाल करते हैं। 

👉🏻इस कारण कीट और रोग लगने का खतरा ज्यादा रहता है, फलस्वरूप लागत खर्च बढ़ जाता है।

👉🏻बीज उपचार से बीज जनित और मिट्टी जनित बीमारियों की रोकथाम हो जाती है। 

👉🏻बीजोपचार से ही 6-10 प्रतिशत तक उत्पादन बढ़ाया जा सकता है। 

👉🏻बीजोपचार से अंकुरण अच्छा होने के साथ ही पौधो की वृद्धि भी बढ़िया होती है बीजोपचार से कीटनाशको का प्रभाव भी बढ़ जाता है तथा फसल 20 से 25 दिन के लिए सुरक्षित हो जाती है।

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कद्दू वर्गीय फसलों में डाउनी मिल्ड्यू रोग की पहचान एवं रोकथाम के उपाय

रोग का परिचय:- कद्दू वर्गीय फसलों जैसे – करेला, लौकी, कद्दू, तुरई, तरबूज, खरबूज, खीरा, ककड़ी, गिल्की आदि की एक गंभीर समस्या है। जो की स्यूडोपेरोनोस्पोरा क्यूबेंसिस नामक फफूंद के कारण होता है। एक बार इसका प्रकोप होने के बाद रोग तेजी से फैलता है, जिससे फलों की गुणवत्ता और उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।

रोग के लक्षण:- रोग के लक्षण सबसे पहले पुरानी पत्तियों पर छोटे पीले धब्बे या पानी से लथपथ घावों के रूप में दिखाई देते हैं। पत्ती की निचली सतह पर सफ़ेद कोमल फफूंद का आवरण दिखाई देता है। लंबे समय तक वातावरण में अधिक नमी के कारण रोग का प्रसार तेजी से होता है। 

रोग की रोकथाम:-  

जैविक नियंत्रण:- (मोनास कर्ब)स्यूडोमोनास फ्लोरेसेंस @ 500 ग्राम प्रति एकड़ के हिसाब से छिड़काव कर सकते हैं।

रासायनिक नियंत्रण:- (कस्टोडिया )एज़ोक्सिस्ट्रोबिन 11% + टेबुकोनाज़ोल 18.3% एससी @ 300 मिली या ( संचार )मेटलैक्सिल 8% + मैनकोज़ेब 64 % डब्ल्यूपी @ 500 ग्राम प्रति एकड़ छिड़काव करें l

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सोयाबीन की फसल में खरपतवार नियंत्रण के उपाय

👉🏻किसान भाइयों, सोयाबीन एक प्रमुख तिलहनी फसल है। यदि समय रहते खररपतवारों का प्रबंधन न किया जाए तो इसके द्वारा सोयाबीन की फसल में 40% तक उत्पादन में कमी देखी गई है।

आज के विषय में हम खरपतवार नियंत्रण के उपाय के बारे में जानेगें :-

👉🏻सोयाबीन की फसल उगने से पूर्व बीज बुवाई के बाद और बीज अंकुरण होने से पहले खरपतवारनाशी दवाइयों का इस्तेमाल कर खरपतवारों से छुटकारा पा सकते हैं।

👉🏻बुवाई के 3-5 दिन के अंदर विल्फोर्स-32 (इमेजेथापायर 2% + पेन्डीमिथालीन 30% ईसी) @ 1 लीटर प्रति एकड़ 200  लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें। एवं फ्लैट फेन नोजल का प्रयोग करें। चौड़ी व सकरी पत्ती वाले खरपतवारों का कारगर नियंत्रण होता है।

👉🏻बुवाई के 3-5 दिन के अंदर मार्क/स्ट्रॉगआर्म (डिक्लोसुलम 84% डब्ल्यूडीजी) 12.4 ग्राम प्रति एकड़ 200 लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें एवं फ्लैट फेन नोजल का प्रयोग करें।

खरपतवार नियंत्रण के फायदे 

👉🏻सोयाबीन की फसल में खरपतवारों को नष्ट करने से उत्पादन में लगभग 25 से 70 प्रतिशत तक की वृद्धि हो सकती है। 

👉🏻भूमि में उपलब्ध पोषक तत्व में से 30 से 60 किलोग्राम नाइट्रोजन, 8-10 किग्रा फास्फोरस एवं 40 – 100  किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर के हिसाब से बचत होती है। 

👉🏻इसके अलावा फसलों का वृद्वि विकास तेजी से होता है तथा उत्पादन के स्तर में बढ़ोतरी होती है, साथ ही कीट एवं रोगों से बचाव होता है।

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जानिए, मिर्च की खेती में मल्चिंग के फायदे

👉🏻किसान भाइयों, मिर्च की खेती में लगायी गयी फसल को सुरक्षा प्रदान करने के लिए पौधे के चारों ओर घास या प्लास्टिक की एक परत बिछाई जाती है, जिसे मल्चिंग कहते है।

मल्चिंग (पलवार) दो प्रकार की होती है, जैविक एवं प्लास्टिक मल्च l 

प्लास्टिक मल्चिंग विधि:- जब खेत में लगाए गए पौधों की जमीन को चारों तरफ से प्लास्टिक शीट द्वारा अच्छी तरह ढक दिया जाता है तो, इस विधि को प्लास्टिक मल्चिंग कहा जाता है l इस तरह पौधों की सुरक्षा होती है और फसल उत्पादन भी बढ़ता है l बता दें कि यह शीट कई प्रकार और कई रंग में उपलब्ध होती है।

 जैविक मल्चिंग विधि:- जैविक मल्चिंग में पराली पत्तों इत्यादि का उपयोग किया जाता है। इसे प्राकृतिक मल्चिंग भी कहा जाता है। यह बहुत ही सस्ती होती है। इसका उपयोग प्रायः जीरो बजट खेती में भी किया जाता है। पराली को न जलाएं बल्कि इसका उपयोग मल्चिंग में करें। मल्चिंग में इसका उपयोग करने से आपको पराली की समस्या से निजात के साथ अधिक उपज प्राप्त होगी।

 लाभ:-  मृदा में नमी संरक्षण एवं तापमान नियंत्रण में सहायक, हवा एवं पानी से मिट्टी का कटाव कम करना, पौधों के वृद्धि के लिए अनुकूल वातावरण प्रदान करना, उत्पादकता में सुधार, भूमि की उर्वरा शक्ति एवं स्वास्थ्य में सुधार, खरपतवारों की वृद्धि को रोकना।

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जानिए, कपास की खेती में ड्रिप सिंचाई का महत्व

👉🏻किसान भाइयों, ड्रिप इरिगेशन सिस्टम तकनीक की सहायता से कपास की फसल में 60 से 70 प्रतिशत तक पानी की बचत होती है। 

👉🏻इस विधि से फसलों की पैदावार में काफी हद तक वृद्धि देखी गई है। 

👉🏻फसलों को उगाने के लिए ड्रिप सिंचाई सबसे कुशल जल और पोषक तत्व वितरण प्रणाली है। 

👉🏻यह पानी और पोषक तत्वों को सीधे पौधे की जड़ों के क्षेत्र में, सही मात्रा में, सही समय पर पहुंचता है। 

👉🏻प्रत्येक पौधे को ठीक से पोषक तत्व, पानी मिलता है, जब उसे इसकी आवश्यकता होती है।  

👉🏻ड्रिप सिंचाई से पानी, बिजली, श्रम एवं लागत की बचत होती है और आवश्यक उर्वरक की मात्रा में कमी आती है। 

👉🏻इसके उपयोग से खरपतवारों पर भी लगाम लगाई जा सकती है, इसके प्रयोग से आर्द्रता का स्तर भी अनुकूल बना रहता है।

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