Major Diseases and Their Control Measures of Wheat

गेंहू की प्रमुख बीमारियाँ एवं उनका नियंत्रण:-

गेंहू की प्रमुख बीमारियों में कण्डुआ (रस्ट) रोग प्रमुख है| कंडुआ रोग 3 प्रकार का होता है | पीला कंडुआ, भूरा कंडुआ और काला कंडुआ |

 

  • पीला कंडुआ:- यह रोग पकसीनिया स्ट्रीफोर्मियस नामक फफूंद से होता है | यह फफूंद नारंगी-पीले रंग के बीजाणु के द्वारा ग्रसित खेत से स्वस्थ खेत को प्रभावित करता है यह पत्तों की नसों की लंबाई के साथ पट्टियों में विकसित होकर छोटे-छोटे, बारीक़ धब्बे विकसित कर देता है| धीरे-धीरे यह पत्तियों की दोनों सतह पर फ़ैल जाता है| |
  • अनुकूल परिस्थितियां:- यह रोग अधिक ठण्ड और आद्र जलवायु लगभग 10-15° से.ग्रे. तापमान पर फैलता है| इस पर बने हुए पॉवडरी धब्बे 10-14 दिनों में फूट जाते है और विभिन्न माध्यमों जैसे- हवा, बरसात और सिंचाई के द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान पहुँचते है | इससे लगभग गेंहू की फसल में  25% हानि होती है|
  • भूरा कण्डुआ:- यह रोग पकसीनिया ट्रीटीसीनिया नामक फफूंद से होता है | यह फफूंद पत्तियों के ऊपरी सतह से शुरू होकर तनों पर लाल-नारंगी रंग के धब्बे बनता है | यह धब्बे 1.5 एम.एम.के अंडाकार आकृति के होते है|
  • अनुकूल परिस्थितियां:- यह रोग 15 -20°से.ग्रे. तापमान पर फैलता है| इसके बीजाणु विभिन्न माध्यमों जैसे- हवा,बरसात और सिंचाई के द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान  पहुँचते है | इसके लक्षण 10-14 दिनों में दिखने लग जाते है|
  • काला कण्डुआ:- यह रोग पकसीनिया ग्रेमिनिस नामक फफूंद से होता है | यह रोग बाजरे की फसल पर भी क्षति पहुँचाता है| यह फफूंद पौधों की पत्तियों और तनों पर लम्बे,अण्डाकार आकृति में लाल-भूरे रंग के धब्बे बनाता है| कुछ दिनों बाद यह धब्बे फट जाते है और इनमे से पाउडरी तत्त्व निकलता है जो की विभिन्न माध्यमों जैसे- सिंचाई, बरसात और हवा के द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान पहुँचता है और अन्य फसलों को क्षति पहुँचाता है |
  • अनुकूल परिस्थितियां:- काला कण्डुआ अन्य कण्डुआ की तुलना में अधिक तापमान 18 -30°से.ग्रे.पर फैलता है| बीजों को नमी (ओस, बारिश या सिंचाई) की आवश्यकता होती है और फसल को संक्रमित करने के लिए छह घंटे तक लगते हैं और संक्रमण के 10-20 दिनों के बाद धब्बे देखे जा सकते है|
  • नियंत्रण:-
  • कंडुआ रोग के नियंत्रण के लिए फसल चक्र अपनाना चाहिए|
  • रोग प्रति-रोधी किस्मों की  बुवाई करें |
  • बीज या उर्वरक उपचार बुवाई के चार सप्ताह तक कण्डुआ को नियंत्रित कर सकता है और उसके बाद इसे दबा सकता है।
  • एक ही सक्रिय घटक वाले कवकनाशी  का बार-बार उपयोग नहीं करें।
  • कासुगामीसिन 5%+कॉपर ऑक्सीक्लोरिड 45% डब्लू.पी. 320 ग्राम/एकड़ या प्रोपिकोनाज़ोल 25% ई.सी.240 ग्राम/एकड़ का छिड़काव करें|

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Suitable Climate and Soil Condition For Bottle Gourd

लौकी की खेती के लिए वातावरण एवं मिट्टी की उपयुक्त दशा:-

वातावरण –

  • लौकी एक उपोष्णकटिबंधीय सब्जी है इसके जल्दी विकास और उच्च उपज के लिए गर्म और आर्द्र जलवायु की आवश्यकता होती है।
  • अर्द्ध शुष्क पारिस्थितिक इस फसल के लिए उपयुक्त है।
  • रात और दिन का तापमान क्रमशः 18-22 °C और 30-35 °C इसके उचित विकास के लिए इष्टतम है।
  • 25-30°C तापमान पर बीज का अंकुरण जल्दी और अच्छा होता है |
  • इष्टतम तापमान पर उगाई गई फसल में मादा फूल और फल / पौधे का उच्च अनुपात होता है।

मिट्टी –

  • लौकी सभी प्रकार की मिट्टी में उगाई जा सकती है लेकिन बहुत अधिक अम्लीय,लवणीय और क्षारीय भूमि मे इसकी खेती नहीं करना चाहिए|
  • बलुई या रेतीले लोम मिट्टी लोंकी के लिए सबसे उपयुक्त है।
  • अच्छी जल निकासी वाली कार्बनिक मिट्टी लोंकी की खेती के लिए उपयुक्त होती है |

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“Neemastra” A Bio-Insecticides

नीमास्त्र –यह नीम से बनाये जाने वाला बहुत ही प्रभावी जैविक कीट नाशक है जो की रसचूसक कीट एवं इल्ली इत्यादि कीटो को नियंत्रित करने के लिए उपयोग में लाया जाता है|

नीमास्त्र बनाने के विधि –

सर्वप्रथम प्लास्टिक के बर्तन मे  5 किलोग्राम नीम की पत्तियों की चटनी और 5 किलोग्राम नीम के फल पीस व कूट कर डालें एवं 5 लीटर गोमूत्र व 1 किलोग्राम गाय का गोबर डालें इन सभी सामग्री को डंडे से अच्छी तरह चलाकर जालीदार कपड़े से ढक दें। यह घोल  48 घंटे में तैयार हो जाएगा। इस घोल को 100 ली. पानी में मिला कर इसे कीट नाशक के रूप में उपयोग कर सकते है |

लाभ –

  • मनुष्य, वातावरण और फसलों के लिए शून्य हानिकारक |
  • इसका जैविकीय विघटन होने के कारण भूमि की संरचना में सुधार |
  • सिर्फ हानिकारक कीटो को मरता है लाभदायक कीटो को हानि नहीं पहुँचता|
  •  किसानो के लिए यह एक अच्छा और सस्ता उपाय है |
  • जैविक कीटनाशकों के प्रयोग से कीटों/व्याधियों में सहनशीलता एवं प्रतिरोध नही उत्पन्न होता जबकि अनेक रसायन कीटनाशकों के प्रयोग से कीटों में प्रतिरोध क्षमता उत्पन्न होती जा रही है जिनके कारण उनका प्रयोग अनुपयोगी होता जा रहा है |

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Happy Dussehara

दशहरा विजयदशमी की हार्दिक शुभकामनाएं:-

दशहरा एक संस्कृति शब्द हैं जिसका अर्थ हैं अहंकार, क्रूरता, अन्याय, हवस, क्रोध, लालच, अति गर्व, ईष्या, लत, स्वार्थ जैसी दस बुराईयों को अपने अंदर से मिटाना| साथ ही विजयादशमी का अर्थ हैं इन दस बुराईयों पर विजय प्राप्त करना |

ग्रामोफोन टीम की और से दशहरा विजयदशमी की हार्दिक शुभकामनाएं |

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Happy Navratri

कुम कुम भरे क़दमों से आए माँ दुर्गा आपके द्वार,

सुख संपत्ति मिले आपको अपार,

ग्रामोफोन टीम की ओर से नवरात्र की शुभकामनाएँ करें स्वीकार|

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Caring of Dairy Cow after Calving

ब्यात के बाद दुधारू गायों की देखभाल:-

ब्यात के बाद वाला समय दुधारू गायों के लिए बहुत महत्वपूर्ण समय होता है!

इस समय जानवर के शरीर में कोलोस्ट्रम और दूध उत्पादन करने के लिए ऊर्जा एवं पौषक तत्वों की अधिक आवश्यकता होती हैं| और इसी समय उसकी भूख कम हो जाती हैं| जिसके कारण उसके शरीर में ऊर्जा के स्तर एवं पौषक तत्वों की कमी हो जाती हैं |

इसलिए, बेहतर स्वास्थय, दूध उत्पादन और प्रजनन के लिए ब्यात के तुरंत बाद गायों की अच्छी देखभाल करना महत्वपूर्ण हैं| नई ब्याही गायों की देखभाल करने के लिए महत्वपूर्ण बिंदु हैं|-

  • यह सुनिश्चित करने के लिए ब्यात के बाद गायों की निगरानी करें कि वे दुध ज्वर और केटोसिस जैसे- रोगों से मुक्त रहें |

 (दुध ज्वर के कुछ संकेत कंपन, कान झटकना, सुस्सता, सूखे थूथन, शरीर का कम तापमान, लेटना, सूजन और चेतना में कमी)

(मीठी गंध वाली सांस और मूत्र, बुखार, वजन घटना आदि केटोसिस के संकेत हैं)

  • बीमार गाय के साथ नई ब्याही गाय को ना रखें|
  • थनैला से बचाव के लिए साफ़ सफाई बनाए रखें| (नई ब्याही गाय में थनैला होने की संभावना अधिक होती हैं )
  • गाय को तनाव मुक्त रखें | उन्हें अधिक गर्मी/ठण्ड एवं बारिश से बचाये| अन्य जानवरों जैसे कुत्ते, बिल्ली तथा किसी भी अन्य आक्रामक जानवर से नई ब्याही गाय को दूर रखे|
  • पौषक तत्वों की पूर्ति करने और भूख बढ़ाने के लिए ताजा आहार के साथ पूरक आहार दे|
  • इसके अलावा यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण हैं कि जानवर अपना आहार पूरा ले रहा हैं कही उसको छोड़ तो नहीं रहा हैं और सामान्य रूप से जुगाली कर रहा है|

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Control of Blight and Foot Rot in Pea Crop

मटर में अंगमारी (झुलसा) और पद गलन रोग का नियंत्रण:-

लक्षण:-

  • पत्तियों पर गहरे भूरे किनारे वाले गोल कत्थई से लेकर भूरे रंग के धब्बे पाये जाते है ।  
  • तनों पर बने विक्षत धब्बे लंबे, दबे हुये एवं बैगनी-काले रंग के होते है ।  
  • ये विक्षत बाद में आपस में मिल जाते है और पूरे तने को चारों और से  घेर लेते है । इस प्रकार यह तना कमजोर हो जाता है ।
  • फलियों पर धब्बे लाल या भूरे रंग के अनियमित धब्बे होते है ।

नियंत्रण:-

  • स्वस्थ बीजों का उपयोग करें एवं बुवाई से पहले कार्बनडेजिम+मेंकोजेब@ 250 ग्राम/ क्विन्टल बीज से बीजोपचार करें ।
  • रोग ग्रस्त पौधों पर फूलों के आने पर मैनकोजेब 75% @ 400 ग्राम/ एकड़ का छिड़काव करें एवं 10-15 दिन के अंतराल से पुनः  छिड़काव करें ।
  • रोगग्रस्त पौधों को निकालकर नष्ट करें ।  
  • जल निकास की उचित व्यवस्था  करें ।

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Nutrient Management in Wheat

गेहूं मे पौषक तत्व प्रबंधन:- गेंहू की उपज में पौषक तत्त्व प्रबंधन बहुत ही महत्वपूर्ण होता है मृदा मे उपलब्ध पौषक तत्त्व की जानकारी हेतु मिट्टी की जाँच बहुत आवश्यक है| इसी के आधार पर फसलो में पौषक तत्त्व प्रबंधन की रणनीति अपनाई जाती है|-

  • अच्छे से सडी हुई गोबर की खाद या कम्पोस्ट को 15-20 टन/हे. के हिसाब से हर 2 साल में मिट्टी में मिलाना चाहिये|
  • गोबर की खाद डालने से भूमि की संरचना में सुधार और पैदावार में बढ़ोतरी होती है।
  • गेंहू में 88  कि.ग्रा. यूरिया, 160 कि.ग्रा ,सिंगल सुपर फॉस्फेट एवं 40 कि.ग्रा. म्युरेट ऑफ़ पोटाश प्रति एकड़ के हिसाब से उपयोग करना चाहिये|
  • युरिया का उपयोग तीन भागों में करना चाहिए|
    1.) 44  कि.ग्रा. यूरिया की मात्रा बोनी के समय करें।
    2.) शेष 22 कि.ग्रा. पहली सिंचाई के समय डाले।
    3.) शेष 22 कि.ग्रा., दुसरी सिंचाई के समय डाले।
  • आशिंक सिंचाई उपलब्ध हो एवं अधिकतम दो सिंचाई होने पर यूरिया @ 175 , सुपर सिंगल फॉस्फेट@ 250 और म्युरेट ऑफ़ पोटाश @ 35-40 कि.ग्रा प्रति हेक्टेयर डाले।
    असिंचित अवस्था में नाइट्रोजन फास्फोरस एवं पोटॉश की पूरी मात्रा डालें|
  • यदि गेंहू की बुवाई मध्य दिसम्बर में करते है तो नत्रजन की 25 प्रतिशत मात्रा कम डालना चाहिये|

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