पत्ता गोभी एवं फूलगोभी में ब्लैक रॉट की रोकथाम के उपाय

यह रोग जैंथमोनस कैम्पेस्ट्रिस पी.वी.नामक जीवाणु के कारण होता है। यह पत्ता गोभी तथा फूलगोभी में सबसे विनाशकारी होता है। इस रोग के लक्षण आमतौर पर पत्ती के किनारे पर पीलेपन से शुरू होते हैं, जिस कारण ‘वी’ आकार के धब्बे बन जाते हैं। जो कि हरिमाहीनता एवं पानी में भीगे जैसे दिखाई देते हैं। इस रोग की वजह से बाद में संक्रमित पत्तियों की शिरायें काली हो जाती हैं, अधिक संक्रमण की अवस्था में यह रोग गोभी के अन्य भागों पर भी दिखाई देता है। जिससे फूल के डंठल अंदर से काले होकर सड़ने लगते हैं और अंत में सड़कर मर जाते हैं।

रोकथाम के उपाय 

  • समय पर खरपतवार नियंत्रण करें। 

  • निर्धारित मात्रा में नाइट्रोजन युक्त उर्वरकों का प्रयोग करें। 

  • जल निकासी की उचित व्यवस्था करें। 

  • जैविक नियंत्रण के लिए, मोनास कर्ब (स्यूडोमोनास फ्लोरेसेंस) @ 500 ग्राम प्रति एकड़ 150-200 लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें।

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जानिए, लेडी बर्ड बीटल किस तरह से है किसान का मित्र

  • किसान भाइयों, लेडी बर्ड बीटल नामक लाभदायक छोटा जैविक कीट है। जो कि किसानों सहित उनकी फसल का भी मित्र है।

  • ये रस चूसने वाले कीट थ्रिप्स, माहू, स्केल्स और मकड़ी को खा कर नष्ट कर देते हैं और फसल की रक्षा करते हैं।

  • कई फसलों में कीटनाशक का छिड़काव भी न हो तो भी लेडी बर्ड बीटल, उसमें लगने वाले कीट को खाकर उनकी संख्या कम करके फसलों को नष्ट होने से बचाता है।

  • इसके साथ ही पर्यावरण संतुलन बनाए रखने में सहयोग करता है। एक लेडी बर्ड बीटल एक दिन में 100  से 200 तक माहू को खा सकते हैं।

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औषधीय गुणों से भरपूर कुल्फा की खेती से करें बढ़िया कमाई

कुल्फा पौध के बारे में कम ही लोग जानते होंगे। इस पौधे का उपयोग औषधी के रूप में किया जाता है। इस बात का पता न होने की वजह से अब तक किसान इसे खरपतवार समझते आ रहे थे। हालांकि कुल्फा के औषधीय गुणों का पता चलते ही अब इसकी खेती व्यवसायिक तौर पर की जाने लगी है। 

औषधीय गुणों का खजाना

कुल्फा को औषधीय पौधों की सूची में रखा गया है। विशेषज्ञों के अनुसार इसकी पत्ती व फल में एंटीऑक्सीडेंट्स और कैरेटिनाइड्स भरपूर मात्रा में पाया जाता है, जो कि शरीर के लिए बहुत फायदेमंद होता है। इस कारण चिकित्सा के क्षेत्र में इसकी काफी मांग है। ऐसे में कुल्फा की खेती के ज़रिए बढ़िया कमाई की जा सकती है।

खेती के लिए सही मिट्टी और मौसम का चुनाव

कुल्फा की खेती किसी भी प्रकार की मिट्टी में की जा सकती है। जुलाई और अगस्त यानी मॉनसून सीजन में इसकी खेती करना बढ़िया रहता है। बता दें कि इसकी खेती के लिए गर्म जलवायु सबसे ज्यादा अनुकूल माना जाता है, क्योंकि ठंडे मौसम में इसके पौधे मर जाते हैं। 

खेती की बात करें तो बीज रोपण के 4 से 6 हफ्ते के बाद इसकी फसल कटाई के लिए तैयार हो जाती है। औषधीय गुणों की खान होने की वजह से कुल्फा की बाजार में बढ़िया दामों पर बिक्री हो जाती है। वहीं दूसरी ओर औषधी बनाने वाली कंपनियां इसके फल और पत्तियों को किसानों से हाथों-हाथ खरीद लेते हैं। ऐसे में कम समय में किसानों को बढ़िया मुनाफा प्राप्त हो जाता है।

स्रोत : आज तक

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बैंगन की फसल में फल गलन/फल सड़न नियंत्रण के उपाय

  • किसान भाइयों, बैंगन की फसल में फल गलन फाइटोफ्थोरा निकोटियाना नामक फफूंद के कारण होता है।

  • इस रोग के लक्षण पत्ती, तना एवं फल पर दिखाई देता है। अधिक नमी के कारण बैंगन की फसल में रोग का प्रसार तेजी से होता है। 

  • जिसके कारण फलों पर जलीय सूखे हुए धब्बे दिखाई देने लगते हैं, जो बाद में धीरे-धीरे दूसरे फलो में भी फैलने लगता है। 

  • इस रोग से प्रभावित फल की ऊपरी सतह भूरे रंग की हो जाती है, जिस पर सफ़ेद रंग के कवक विकसित हो जाती है। अंत में फल पौध से टूट कर गिर जाता है। 

रोकथाम  के उपाय 

  • तमिलनाडु एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के द्वारा सुझाय गए उपाय अपनाकर इस समस्या से बचा जा सकता है।  

  • प्रभावित फलों को हटाना और नष्ट कर देना चाहिए। 

  • जैविक प्रबंधन : जैविक उपचार के रूप में मोनास कर्ब (स्यूडोमोनास फ्लोरोसेंस) @ 500 ग्राम/एकड़ 150 -200 लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें।

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मक्का की फसल में मोथा घास नियंत्रण के उपाय

किसान भाइयों, मोथा घास (cyperus rotundus) एक बहुवर्षीय सकरी पत्ती वाला खरपतवार है। इसे नियंत्रित करना विशेष रूप से कठिन है, क्योंकि जमीन के ऊपर और मिट्टी के नीचे, प्रकन्द आसानी से जड़ पकड़ लेते हैं। इन्हीं प्रकन्द से ये तेजी से फैलता है। प्रकन्दों का बहुत ही सघन जड़ तन्त्र होता है, जो भूमि में काफी गहराई तक पहुँच सकता है। इसका प्रसारण बीज द्वारा बहुत कम होता है। मक्के की बेहतर फसल उत्पादन के लिए खरपतवार प्रबंधन समय – समय पर करना बहुत आवश्यक होता है।

इससे फसलों में होने वाले नुकसान 

ये हवा, पानी, प्रकाश, खाद, पोषक तत्व के साथ प्रतिस्पर्धा करते हैं। जिससे मक्के की बढ़वार कम होती है और पौधा कमजोर रह जाता है। इसे आरम्भिक अवस्था में यदि नियंत्रित न किया जाये, तो उपज में 40 से 50 % तक की गिरावट देखी जा सकती है।

नियंत्रण के उपाय 

यांत्रिक विधि :  मक्के से अच्छे उत्पादन के लिए, फसल में पहली निराई, बुवाई के 15-20 दिन बाद और दूसरी निराई बुवाई के 30 -45 दिनों बाद करनी जरूरी हो जाता है। 

रासायनिक विधि : मोथा के अच्छे नियंत्रण के लिए 2 से 3 पत्ती की अवस्था में खरपतवार नाशक सेम्प्रा  (हैलोसल्फ्यूरॉन मिथाइल 75% डब्ल्यू जी) @ 36 ग्राम + सिलिको मैक्स @ 50 मिली प्रति एकड़, 150 – 200 लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें। छिड़काव के समय फ्लैट फेन नोजल का प्रयोग करें एवं खेत में नमी बनाये रखें।

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बेल वाली फसलों में फल मक्खी की पहचान एवं नियंत्रण के उपाय

फल मक्खी के पहचान

  • यह कीट विकसित मुलायम फलों को क्षति पहुंचाते हैं।

  • फल मक्खी का प्रकोप जुलाई से अक्टूबर माह तक जारी रहता है।

  • इन कीटों की मादा मक्खी मुलायम फलों के गूदे में प्रवेश करके उसमें अपने अण्डे देती है। 1-2 दिन में (शिशु ) फलों के अंदर ही निकल आते हैं और फल के अंदर ही गूदे को खाकर विकसित होते हैं। 

  • साथ ही फलों के अंदर ही अपशिष्ट पदार्थ छोड़ते हैं, जिससे फल सड़ने लगता है। फलों के क्षतिग्रस्त भाग से तेज गंध आने लगती है एवं फल टेड़े- मेड़े आकार के हो जाते हैं। इस कारण फलों की गुणवत्ता खराब होती है, जो कि फिर बिक्री योग्य नहीं रहते हैं। 

फेरोमोन ट्रैप :- 

यह एक प्रकार की विशेष गंध होती है, जो मादा पतंगा छोड़ती हैं। यह गंध नर पतंगों को आकर्षित करती है। विभिन्न कीटों द्वारा विभिन्न प्रकार के फेरोमोन छोड़े जाते हैं, इसलिए अलग-अलग कीटों के लिए अलग-अलग ल्यूर काम में लिए जाते हैं। कद्दू वर्गीय फसल में फल मक्खी की रोकथाम के लिए आईपीएम ट्रैप ( मेलोन फ्लाई ल्यूर) 8 से 10 ट्रैप प्रति एकड़ स्थापित करें।   

रोकथाम

  • बेनेविया (सायंट्रानिलिप्रोल 10.26% ओडी) @ 360 मिली + स्टिकर (सिलिको मैक्स) @ 50 मिली प्रति एकड़, 150 -200 लीटर पानी के के हिसाब से छिड़काव करें। 

जैविक नियंत्रण के लिए, बवे-कर्ब (बवेरिया बेसियाना) @ 500 ग्राम, प्रति एकड़ 150 से 200 लीटर पानी के हिसाब से  छिड़काव करें।

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कद्दू वर्गीय फसलों में फूल और फल गिरने का कारण और रोकथाम के उपाय

कद्दू वर्गीय फसल जैसे लौकी, तोरई, तरबूज,खरबूज, पेठा, खीरा, टिण्डा, करेला आदि में फूल झड़ने व फल गिरने से पैदावार में भारी गिरावट आती है। इसके कारण निम्न हैं –

  • परागण की कमी

विभिन्न तंत्रों के कारण परागण विफल हो सकता है तथा परागण की कमी, पराग कर्ता की कमी या विपरीत पर्यावरण के कारण पर परागण विफल हो सकता है।

  • पोषक तत्वों की कमी

कई बार सही मात्रा में  पौधे को पोषक तत्व नहीं मिल पाते जिसके कारण फूल एवं फल  पूर्णरूप से विकसित नहीं हो पाते हैं और गिर जाते हैं। इसके लिए पौधे को गंधक, बोरान, कैल्शियम, मैग्नीशियम आदि तत्वों का मिलना बहुत जरूरी होता है

  • जल की कमी /नमी :

पर्याप्त जल की कमी के कारण पौधे पोषक तत्वों को भूमि से अपनी जड़ों के द्वारा अवशोषित नहीं कर पाते जिसके कारण फूलों व फलों में कई प्रकार के तत्वों की कमी हो जाती है और वह गिरने लगते हैं। साथ ही अत्यधिक तापमान और तेज हवा के चलने से पानी का अत्यधिक वाष्पीकरण होता है। जिससे पेड़ों की पत्तियां मुरझा जाती हैं, जो फल गिरने का कारण बनती हैं।

  • बीज का विकास

बीज से निकलने वाले ओक्सीटोक्सिन, पोधो से फलों को जोड़े रहने में सहायक होते हैं | परागण कम या नहीं होने पर, बीज सही से बन नहीं पाते या बीज का सही विकास नहीं हो पाता है, इन दोनों ही अवस्थाओं में फल अधिक मात्रा में गिरते हैं।

  • कीट तथा बीमारियां

विभिन्न प्रकार के कीट एवं सूक्ष्म जीवों के पौधों में लगने से फल एवं फूल झड़ने लगते हैं।

  • कार्बोहाइड्रेट की मात्रा : 

फलों को बनाने और उन को विकसित करने के लिए कार्बोहाइड्रेट की ज्यादा मात्रा की जरूरत होती है और अगर पौधों में कार्बोहाइड्रेट का स्तर कम होता है तो फलों के झड़ने की समस्या अधिक होने लगती है।

फल एवं फूलों के झड़ने से रोकने के उपाय

    • पोषक तत्वों का छिड़काव:- पौधों में समय-समय पर पोषक तत्वों का छिड़काव किया जाना चाहिए।  मुख्य एवं सूक्ष्म जैसे – बोरान, कैल्शियम, मैग्नीशियम आदि। 

    • सिंचाई:- आवश्यकता अनुसार एक निश्चित अंतराल से फसलों में सिंचाई करते रहना चाहिए जिससे पर्याप्त मात्रा में नमी बनी रहे। ध्यान रहे जरूरत से ज्यादा सिंचाई भी नुकसानदायक हो सकती है।

    • गुड़ाई:- बेल वाली सब्जियों में समय-समय पर गुड़ाई व अन्य अंतर सस्य कार्य होते रहना चाहिए ताकि खेत खरपतवारों से मुक्त रहे। गोबर की अच्छी पकी हुई खाद या केंचुआ खाद (Vermicompost) का इस्तेमाल समय समय पर करना जरूरी है।

    • कीट नियंत्रण : फसलों  में कीट व बीमारी अधिक मात्रा में हानि पहुंचाते हैं। इसलिए समय पर देखरेख करें और कीट नियंत्रण करें। 

    • हार्मोन का संतुलन बनाए रखना : सामान्य फसल में, हार्मोन के असंतुलन के कारण भी अधिक नुकसान होता है| तो हार्मोन का संतुलन बनाए रखें। इसमें नोवामैक्स (जिब्रेलिक एसिड 0.001%) @ 300 मिली प्रति एकड़, @ 150 से 200 लीटर पानी  के हिसाब से छिड़काव करें।

  • परागण कर्ता का उपयोग

इन फसलों के परागण  के लिए मधुमक्खी या अन्य कीटों  का होना आवश्यक है। इन कीटो की उपस्थिति  के समय किसी भी प्रकार का छिडकाव या अन्य कृषि कार्य खेत में ना करें। इससे  परागण  के कार्य सरलता से व समय पर होता है।

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मक्का की फसल में 40 से 45 दिन की अवस्था में पोषक प्रबंधन

  • मक्का खरीफ ऋतु की प्रमुख फसल है। हालांकि जहां सिंचाई के साधन हैं, वहां रबी और खरीफ की अगेती फसल के रूप में मक्का की खेती की जा सकती है। मक्का कार्बोहाइड्रेट का बहुत अच्छा स्रोत है। यह एक बहुपयोगी फसल है, मनुष्य के साथ- साथ पशुओं के आहार का प्रमुख अवयव भी है तथा मक्का की खेती का औद्योगिक क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण स्थान है।

  • मक्का फसल को खरपतवार रहित होना चाहिए। जिससे सीधे मुख्य फसल ही पोषक तत्व ग्रहण करेंगे और पोषक तत्व का नुकसान नहीं होगा एवं फसल भी स्वस्थ रहेगी।

  • मक्का की अधिक पैदावार लेने के लिये पोषक तत्व प्रबंधन एक महत्वपूर्ण उपाय हैं।  यूरिया 35 किग्रा, सूक्ष्म पोषक तत्व  मिश्रण केलबोर (बोरॉन 4 + कैल्शियम 11 + मैग्नीशियम 1 + पोटेशियम 1.7 + सल्फर 12 %) @ 5 किग्रा प्रति एकड़ के हिसाब से भुरकाव करें। 

  • मक्का की फसल में 40 से 45 दिन की अवस्था में फूल आना शुरू होता है। ज्यादा फूल लगने के लिए, होमोब्रासिनोलॉइड 0.04% डब्ल्यू/डब्ल्यू (डबल) @ 100 मिली प्रति एकड़ 150 से 200 लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें।

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मिर्च की फसल में पत्तियाँ मुड़ने की समस्या और समाधान

मिर्च की फसल में पत्ता मोडक बीमारी सबसे घातक एवं ज्यादा नुकसान पहुंचाने वाली बीमारी है। जिसे विभिन्न स्थानों में कुकड़ा या चुरड़ा-मुरड़ा रोग के नाम से जाना जाता है। यह रोग न होकर, थ्रिप्स, सफ़ेद मक्खी, व मकड़ी के प्रकोप के कारण होता है। 

सफेद मक्खी –

इस कीट का वैज्ञानिक नाम (बेमेसिया टेबेसाई) है इस कीट के शिशु एवं वयस्क, शिशु पत्तियों की निचली सतह पर चिपके रहकर रस चूसते रहते हैं। भूरे रंग के शिशु अवस्था पूरी होने के बाद वहीं पर रहकर प्यूपा में बदल जाते हैं। ग्रसित पौधे पीले व तैलीय दिखाई देते हैं। जिन पर काली फंफूदी लग जाती हैं। यह कीड़े न केवल रस चूसकर फसल को नुकसान करते हैं। बल्कि पौधों पर चिपचिपा पदार्थ छोड़ती हैं, जिससे फफूंद जनित रोग की सम्भावना बढ़ जाती है। इसका प्रकोप होने पर पौधों की पत्तियां सुकड़कर मुड़ने लगती हैं।

नियंत्रण के उपाय

  • इसके नियंत्रण के लिए, मेओथ्रिन (फेनप्रोपेथ्रिन 30% ईसी) @ 120 मिली + (सिलिको मैक्स) @ 50 मिली प्रति एकड़, 150 -200 लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें। 

  • जैविक नियंत्रण के लिए, (बवे-कर्ब) बवेरिया बेसियाना @ 500 ग्राम/एकड़ 150 -200 लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें।

मकड़ी

इस कीट का वैज्ञानिक नाम पॉलीफैगोटार्सोनमस लैटस है। यह छोटे-छोटे जीव होते हैं, जो पत्तियों की निचली सतह से रस चूसते हैं। परिणामस्वरूप पत्तियां सिकुड़ कर नीचे की ओर मुड़ जाती हैं। जिन्हें साधारण आंखों से देखना संभव नहीं हो पाता है। यदि मिर्च की फसल में थ्रिप्स व मकड़ी का आक्रमण एक साथ हो जाये तो पत्तियां विचित्र रूप से मुड़ जाती हैं। इसके प्रकोप से फसल के उत्पादन में बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है।

नियंत्रण के उपाय

  • इसके नियंत्रण के लिए, ओबेरोन (स्पाइरोमेसिफेन 22.90% एस सी) @ 160 मिली या ओमाइट (प्रोपरजाईट 57% ईसी) @ 600 मिली + (सिलिको मैक्स) @ 50 मिली प्रति एकड़, 150 -200 लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें। 

थ्रिप्स

इस कीट का वैज्ञानिक नाम (सिर्टोथ्रिप्स डोरसालिस) है। यह छोटे एवं कोमल शरीर वाले हल्के पीले रंग के कीट होते है, इस कीट का शिशु एवं वयस्क दोनों ही मिर्च की फसल को नुकसान पहुंचाते है। यह पत्तियो एवं अन्य मुलायम भागों से रस चूसते हैं। थ्रिप्स के प्रकोप के कारण मिर्च की पत्तियां ऊपर की ओर मुड़ कर नाव का आकार धारण कर लेती है। 

नियंत्रण के उपाय –

  • फिपनोवा  (फिप्रोनिल 5% एससी) @ 320 मिली या लैमनोवा (लैम्ब्डा साइहेलोथ्रिन 4.9% सीएस) @ 200 मिली + (सिलिको मैक्स) @ 50 मिली प्रति एकड़, 150 -200 लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें। 

  • जैविक नियंत्रण के लिए, (बवे-कर्ब) बवेरिया बेसियाना @ 500 ग्राम / एकड़ के हिसाब  से 150 -200 लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें। 

इसके अलावा किसान भाई कीट प्रकोप की सूचना के लिए, नीले  चिपचिपे ट्रैप (ब्लू  स्टिकी ट्रैप ) @ 8 -10, प्रति एकड़ के हिसाव से खेत में स्थापित करें| । यह कीट प्रकोप को इंगित करें जिसके आधार पर किसान भाई ऊपर बताए गए उपाय अपनाकर फसल को कीट प्रकोप से बचा सकते हैं।

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प्याज़ की फसल में खरपतवार प्रबंधन कैसे करें

  • प्याज़ के अच्छे उत्पादन के लिए, फसल में पहली निराई बुवाई के 25-30 दिन बाद और दूसरी निराई बुवाई के 60-65 दिनों बाद करनी जरूरी हो जाता है। ये अवस्था क्रांतिक अवस्था कहलाती है। 

  • मृदा में प्राकृतिक रूप  से, बहुत से मुख्य एवं सूक्ष्म पोषक तत्व पाए जाते हैं, जो अधिक खरपतवारों के प्रकोप के कारण प्याज़ की फसल को पूरी तरह नहीं मिल पाते हैं | 

  • इसके कारण फसलों में पोषक तत्वों की कमी हो जाती है और फसल की कुल उपज पर भी बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है |  

  • प्याज़ की अच्छी फसल उत्पादन के लिए खरपतवार प्रबंधन समय – समय पर करना बहुत आवश्यक होता है। इसके लिए निम्र प्रकार से खरपतवार प्रबंधन करना बहुत आवश्यक है। ध्यान रहे कि खरपतवार प्रबंधन बुवाई के ठीक 20-25 दिन पूरे होने पर और खरपतवार निकलने के तुरंत बाद करना चाहिए।

 डेकेल (चौड़ी व सकरी पत्ती के लिए)

  • डेकेल (प्रोपाक्विज़ाफोप 5% + ऑक्सीफ्लुरोफेन 12% ईसी) @ 350 मिली/एकड़, 150 से 200 लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें। फ्लैट फैन नोज़ल का प्रयोग करें एवं खेतो में नमी बनाये रखें। खरपतवार की 2-4 पत्ती के अवस्था में छिड़काव करने पर सर्वोत्तम परिणाम प्राप्त होता है।  

टरगा सुपर (सकरी पत्ती के लिए)

  • टरगा सुपर (क्विज़ालोफॉप एथिल 5% ईसी) @ 300 मिली, प्रति एकड़ 150 से 200 लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें। यह एक चयनात्मक शाकनाशी है। फ्लैट फैन नोज़ल का प्रयोग करें एवं खेतो में नमी बनाये रखें। साथ ही 2-4 पत्ती के चरण में छिड़काव करने पर सर्वोत्तम परिणाम प्राप्त होता है। इसका उपयोग चौड़ी पत्ती वाली फसलों में संकरी पत्ती वाले खरपतवारों को नियंत्रित करने के लिए किया जाता है।

एजिल (सकरी पत्ती के लिए)

  • प्रोपाक्विज़ाफॉप 10% ईसी @ (एजिल) 250 मिली, प्रति एकड़ 150 से 200 लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें। यह एक चयनात्मक खरपतवारनाशी है। इसका उपयोग वार्षिक और बारहमासी घास को नियंत्रण के लिए किया जाता है। फ्लैट फैन नोज़ल का प्रयोग करें एवं खेतो में नमी बनाये रखे। खरपतवार की 2-4 पत्ती के अवस्था में छिड़काव करने पर सर्वोत्तम परिणाम प्राप्त होता है।

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