प्याज लहसून के भण्डारण को प्रभावित करने वाले कारक:- किस्म का चुनाव :- सभी किस्मो की भण्डारण क्षमता एक सी नहीं होती है। खरीफ में तैयार होने वाली किस्मों के प्याज टिकाउ नहीं हेाते हैं। रबी मौसम में तैयारी होने वाली किस्मों के प्याज साधारणत: 4-5 माह तक भण्डारित किये जाते हैं। यह किस्म के अनुसार कम या अधिक हो सकता है। पिछले 10-15 वर्षों के अनुभव बताते हैं कि एन-2-4-2, एग्रीफाउंड लार्इट रेड, अर्का निकेतन आदि किस्में 4-5 माह तक अच्छी तरह भण्डारित की जा सकती है। लहसुन की जी-1. जी- 2 ,जी 50 तथा जी 323 आदि जातियों को 6 से 8 महिने तक भण्डारण किया जा सकता हें
उर्वरक एवं जल प्रबन्ध :- उर्वरकों की मात्रा, उसका प्रकार तथा जल प्रबन्ध का प्याज लहसुन के भण्डारण पर प्रभाव पड़ता है। गोबर की खाद से भण्डारण क्षमता बढ़ती है। इसलिए अधिक मात्रा में गोबर की खाद या हरी खाद का उपयोग करना आवश्यक है। प्याज लहसून में प्रति हेक्टर 150 किग्रा. नत्रजन, 50 किग्रा.फास्फोरस तथा 50 किग्रा. पौटाश देने की सिफारिश की गर्इ है। यदि हो सके तो सारा नेत्रजन कार्बनिक खाद के माध्यम से देना चाहिए तथा नत्रजन की पूरी मात्रा रोपार्इ के 60 दिन से पहले दे देनी चाहिए। देर से नत्रजन देने से पौधों के तने (गर्दन) मोटे हो जाते हैं तथा प्याज में टिकते नहीं एवं फफुंदीजनक रोगों का अधिक प्रकोप होता है साथ ही प्रस्फुटन भी अधिक होता है। पोटेशियम की मात्रा 50 किग्रा. से बढ़ाकर 80 किग्रा. प्रति हेक्टर तक देनी चाहिए। इसी प्रकार का 50 किग्रा. प्रति हेक्टर की दर से प्रयोग करने से प्याज लहसुन की भण्डारण क्षमता व गुणवत्ता बढ़ती है। गन्धक की पूर्ति के लिए अमोनियम सल्फेट, सिंगल सुपर फास्फेट या पोटेशियम सल्फेट का प्रयोग करने से रोपार्इ के बाद पौधों को पर्याप्त मात्रा में गन्धक मिलता है
भण्डारण गृह का वातावरण :- प्याज लहसुन के अधिक समय तक भण्डारण के लिए भण्डारगृहों का तापमान तथा अपेक्षाकृत आद्रता महत्वपूर्ण कारक है। अधिक आर्द्रता (70% से अधिक) प्याज के भण्डारण का सबसे बडी शत्रु है। इससे फफुंदों का प्रकोप भी बढ़ता है व प्याज सड़ने लगता है। इसके विपरीत आर्द्रता कम (65% से अधिक) होने पर प्याज के वाष्पोत्सर्जन अधिक होता है तथा वजन में कमी अधिक होने लगती है। अच्छे भण्डारण के लिए भण्डार गृहों का तापमान 25-30 डिग्री सें. तथा आर्द्रता 65-70 प्रतिशत के मध्य होनी चाहिए। मर्इ-जून के महीनों में भण्डारगृहों का तापमान अधिक होने से तथा नमी कम होने से वजन में कमी अधिक होती है। जुलार्इ से सितम्बर तक नमी 70 प्रतिशत से अधिक होती है। इससे सड़न बढ़ जाती है। इसी समय कम तापमान से अक्टूबर-नवम्बर में ससुप्ताविस्था टूट जाती एवं प्रस्फुटन की समस्या बढ़ जाती है।
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