सोयाबीन की बुआई करने के बाद कवक रोगों से बचाव के ये उपाय जरूर करें

What measures to take to avoid fungal diseases after sowing soybean crop
  • वर्तमान समय में किसानों को सोयाबीन की फसल से बहुत अधिक लाभ नहीं मिल पाता है इसके पीछे बहुत से कारण है। इसका एक मुख्य कारण सोयाबीन की फसल में होने वाले कवक रोग हैं जिसके कारण फसल बहुत अधिक प्रभावित होती है।

  • सोयाबीन फसल में लगने वाले कवक रोगों में पौध सडन रोग, झुलसा रोग, पत्ती धब्बा रोग आदि प्रमुख हैं जिसके कारण बहुत ज्यादा नुकसान होता है।

  • इनके नियंत्रण के लिए रोग प्रबधन करना बहुत आवश्यक होता है। इसके लिए रोग रोधी किस्मों का चयन करें एवं बुआई के पूर्व, बीज़ एवं मिट्टी उपचार जरूर कर लें। साथ ही फसल में रोग के लक्षण दिखाई देने पर तुरंत छिड़काव करें।

  • सोयाबीन की फसल में पानी बहुत देर तक एवं अधिक मात्रा में रुकने ना दें, क्योंकि जितनी अधिक मात्रा में पानी जमा होगा, पौधे पर प्रभाव एवं फसल में कवक जनित रोगों का प्रकोप उतना ही ज्यादा होगा।

  • कवक रोगों के नियंत्रण के लिए हमेशा एक ही तरह के कवकनाशी का उपयोग नहीं करना चाहिए क्योंकि एक ही कवकनाशी का बार बार उपयोग करने से रोग की उस कवकनाशी के प्रति प्रतिरोधकता उत्पन्न हो जाती है जिसके कारण रोग का नियंत्रण नहीं हो पाता है।

  • सोयाबीन को निश्चित दूरी पर बोयें, अधिक घना ना बोयें क्योंकि इससे भी कवक के आक्रमण की सम्भावना रहती है। खरपतवार का नियंत्रण करें क्योंकि कवक जनित रोगों को फैलाने में यह भी सहायक होते हैं।

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कद्दू वर्गीय फसलों की मचान बना कर करें खेती, मिलेंगे कई लाभ

Benefits of cultivating by making machan in cucurbitaceous crops
  • मचान विधि क्या है: इस विधि में तार का जाल बनाकर कद्दू वर्गीय फसलों की बेल को जमीन से ऊपर रखा जाता है। इससे बेल वाली सब्जियों को आसानी से उगा सकते हैं। इसके साथ ही फसल को कई प्रकार के रोगों से बचाया जा सकता है। इससे फसल का ज्यादा उत्पादन प्राप्त होता है।

  • गर्मी के मौसम में खीरा, तोरई, करेला, लौकी समेत कई अन्य सब्जियों की खेती की जाती है लेकिन बारिश होने के कारण यह फसलें गलने लगती हैं। अगेती किस्म की बेल वाली सब्जियों को मचान विधि से लगाकर किसान अच्छी उपज पा सकते हैं।

  • सबसे पहले इनकी नर्सरी तैयार की जाती है। फिर मुख्य खेत में जड़ों को बिना नुकसान पहुंचाए रोपण किया जाता है। मचान बनाने के लिए, बांस या तार की मदद से जाल बनाकर सब्जियों की बेल को ऊपर पहुंचाया जाता है। बरसात के मौसम में, मचान की खेती फल को नुकसान से बचाती है। फसल में यदि कोई रोग लगता है तो मचान में दवा छिड़कने में भी आसानी होती है।

  • मचान विधि से खेती करने का लाभ: फसल की बेल खुल कर फैल पाती है, फसल को भरपूर धूप और हवा मिलती है, खरपतवार और घास भी कम निकलती है, मचान को 3 साल तक उपयोग कर सकते हैं, कीट और रोग का खतरा कम हो जाता है क्योंकि इससे फसल भूमि के संपर्क में आने से बच जाती है एवं बीमारियों का प्रकोप बहुत कम होता है। फसल की देखभाल आसानी से हो जाती है और छिड़काव आदि करने में आसानी होती हैं, एक समय में 2 से 3 सब्जियों की खेती कर सकते हैं।

  • मचान विधि किसान की आमदनी को दोगुना करने में सफल साबित हो सकती है। इस विधि के माध्यम से किसान 90 प्रतिशत फसल को खराब होने से बचा सकता है। इसके साथ ही किसानों को खेती में नुकसान भी कम होगा।

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आखिर कौन से कारक फसल के उत्पादन को प्रभावित करते हैं?

What factors affect crop production?
  • जलवायु: यह फसल प्रारूप को प्रभावित करने वाला सबसे महत्वपूर्ण कारक है। जलवायु ही यह निर्धारित करती है कि कौन-सी फसल किस क्षेत्र में अच्छा उत्पादन प्रदान करेगी। एक क्षेत्र की फसल उत्पादन क्षमता मुख्य रूप से वहां की जलवायविक तथा मिट्टी की दशा पर निर्भर करती है।

  • मिट्टी: मिट्टी भी फसल प्रारूप को प्रभावित करने वाला एक महत्वपूर्ण कारक है। प्रत्येक मिट्टी में कुछ विशेष गुण होते हैं तथा जो किसी फसल विशेष के उत्पादन हेतु अधिक अनुकूल होते हैं। इसी तरह किसी क्षेत्र की मिट्टी अधिक उपजाऊ तो किसी क्षेत्र की मिट्टी कम उपजाऊ होती है।

  • वर्षा: कम या अधिक वर्षा के कारण भी फसल बहुत प्रभवित होती है क्योंकि कुछ फसलें अधिक वर्षा के कारण कवक रोगों से ग्रसित हो जाती हैं एवं कुछ फसलें कम वर्षा के कारण अच्छे से अंकुरित नहीं हो पाती हैं। दाना भरते समय अगर वर्षा न हो और पानी की कमी हो जाये तो दाना नहीं भरता है और उपज में कमी हो जाती है।

  • तापमान: तापमान पौधों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह पौधों के चयापचय की भौतिक प्रक्रिया को नियंत्रित करता है। यदि तापमान कम व अधिक होगा तो फसल की वृद्धि रुक जायेगी।

  • सिंचाई: सिंचाई गैर-भौतिक कारकों में महत्वपूर्ण कारक है। हम सिंचाई द्वारा वर्षा की कमी की भरपाई कर सकते हैं। नहरों का निर्माण कर हम सिंचाई का प्रबंध कर सकते हैं। सिंचाई सुविधा से प्रति हेक्टेयर उत्पादन में वृद्धि की जा सकती है।

  • बीज: बीजों की गुणवत्ता भी फसल प्रारूप को प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। उच्च पैदावार वाले बीजों को बोने से भारत जैसी कृषि-अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण सुधार किया जा सकता है। उन्नत बीजों से क्षेत्र-विशेष की उपज को 10 से 20 प्रतिशत तक बढ़ाया जा सकता है।

  • उर्वरक: उर्वरक मिट्टी की उर्वरा शक्ति में वृद्धि कर खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि करने में सहायक होते हैं। जिन क्षेत्रों में संतुलित उर्वरकों का प्रयोग किया जाता है वहां की कृषि उपज में वृद्धि होती है।

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मिट्टी में मैग्नीशियम की कमी व अधिकता के कारण एवं पौधे पर दिखने वाले लक्षण

Symptoms and reason of magnesium deficiency and its excess
  • मैग्नीशियम की कमी का कारण: जब मिट्टी में पोटेशियम या अमोनिया की मात्रा अधिक होती है या इन पोषक तत्वों का अत्यधिक उपयोग होता है, तो मैग्नीशियम की कमी हो सकती है, क्योंकि वे मिट्टी में उपस्थित मैग्नीशियम के विरुद्ध काम करते हैं।

  • मैग्नीशियम की अधिकता का कारण: उर्वरकों का आवश्यकता से अधिक उपयोग करने से मिट्टी में मैग्नीशियम की अधिकता हो जाती है। इसके कारण मिट्टी में जल का निकास बाधित होता है।

  • मैग्नीशियम की कमी के पौधों पर लक्षण: मैग्नीशियम की कमी के लक्षण सबसे पहले परिपक्व पत्तियों पर दिखाई देते है, मैग्नीशियम की कमी के कारण पत्तियों का आकार अनियमित हो जाता है एवं पत्तियां खुरदरी हो जाती हैं। मैग्नीशियम की कमी के कारण पत्तियों की शिराएं हरे-पीले रंग की दिखाई देती हैं। गंभीर रूप से प्रभावित पत्तियों के किनारों पर हल्के भूरे रंग के धब्बे दिखाई देते हैं। मैग्नीशियम की कमी के कारण पत्तियों के किनारों पर पीलापन दिखाई देता है जिसके कारण जड़ का विकास नहीं होता है और फसल कमजोर हो जाती है।

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क्यों होती है मिट्टी में कैल्शियम की कमी एवं अधिकता?

Why is there a deficiency and excess of calcium in the soil
  • कैल्शियम की कमी का कारण: अगर सिंचाई के बीच अधिक अंतर हो तो मिट्टी अधिक सूख जाती है जिसके कारण कैल्शियम की कमी हो जाती है। कम पीएच वाली मिट्टी, उच्च खारा पानी या अमोनियम समृद्ध मिट्टी भी कैल्शियम की कमी पैदा कर सकती हैं।

  • कैल्शियम की अधिकता के कारण: एसएसपी युक्त उर्वरक के अनियमित एवं अधिक उपयोग के कारण कैल्शियम की अधिकता होती है।

  • कैल्शियम की कमी के लक्षण: पौधे के ऊतकों में कैल्शियम की बहुत कम गतिशीलता के कारण कमी के लक्षण मुख्य रूप से तेजी से पौधे के वृद्धि करते हुए भागों पर दिखाई देते हैं। इसके कारण पत्तियां पीली हो जाती हैं और धीरे-धीरे सूखने लगती है। कैल्शियम की कमी के लक्षण पत्तियों के आधार वाले भागों पर भी दिखाई देते हैं।

  • कैल्शियम की कमी के लक्षण पौधे के तने पर सूखे मृत धब्बों के रूप में दिखाई देते हैं तथा तने का ऊपरी वृद्धि करने वाले भाग मृत हो जाते हैं। कैल्शियम की कमी के कारण फलों में ब्लॉसम एन्ड रॉट के लक्षण दिखाई देते हैं।

  • कैल्शियम की अधिकता के कारण मिट्टी का pH मान बढ़ जाता है।

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कपास की प्रारंभिक अवस्था में झुलसा रोग का ऐसे करें नियंत्रण

How to control blight disease in the early stages of cotton crop
  • कपास की फसल की बुआई के बाद अंकुरण की प्रारंभिक अवस्था में झुलसा रोग का प्रकोप होने लगता है जिसके कारण फसल की वृद्धि बहुत प्रभावित होती है।

  • यह रोग जीवाणु जनित है। इस रोग का प्रकोप कपास के खेत में एक साथ न शुरू होकर धीरे-धीरे कुछ कुछ हिस्सों पर होता है तथा धीरे-धीरे यह पूरे खेत में फैल जाता है। इस रोग में पत्तियाँ ऊपर से नीचे की ओर सुखना शुरू होती है।

  • इस रोग के प्रारंभिक लक्षण फसल बुआई के 20 से 35 दिन बाद पत्तियों पर दिखाई देते हैं। अधिक संक्रमण की दशा में पत्तियों का रंग मटमैला हरा हो जाता है। इसके प्रकोप के कारण फसल कमजोर हो जाती है।

  • आर्द्रता के 95 प्रतिशत से अधिक हो जाने पर रोग के तीव्रता से फैलने की संभावना होती है। इस रोग के रोगाणु मिट्टी में बहुत समय तक रहते हैं जिसके कारण यह रोग अगली फसल को भी नुकसान पहुंचाता है।

  • इसके नियंत्रण के लिए कासुगामायसिन 5% + कॉपर आक्सीक्लोराइड 45% WP @ 300 ग्राम/प्रति एकड़ जमीन में जड़ के पास छिड़काव करें।

  • कासुगामायसिन 3% SL @ 400 मिली/एकड़ या स्ट्रेप्टोमायसिन सल्फेट 90% + टेट्रासायक्लीन हाइड्रोक्लोराइड 10% W/W @ 20 ग्राम/एकड़ की दर से छिड़काव करें।

  • जैविक उपचार के रूप में स्यूडोमोनास फ्लोरोसेंस@ 250 ग्राम/एकड़ की दर से जमीन से दे एवं छिड़काव भी करें।

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मिर्च की रोपाई से पहले रोपाई उपचार है जरूरी, जानें इसका महत्व

How to do transplantation treatment and its importance before transplanting chilli
  • नर्सरी में बुआई के 35 से 40 दिनों बाद मिर्च की पौध रोपाई के लिए तैयार हो जाती है। रोपाई का उपयुक्त समय मध्य जून से मध्य जुलाई तक है। पौधे नर्सरी से उखाड़ने से पूर्व हल्की सिंचाई कर देनी चाहिए, ऐसा करने से पौध की जड़ को नुकसान नहीं होता, और पौध आसानी से लग जाती है। पौध को नर्सरी से निकालने के बाद सीधे धूप मे नहीं रखना चाहिये।

  • नर्सरी से मिर्च की पौध को उखाड़ कर खेत में लगाने से पहले पौध का उपचार करना अतिआवश्यक है। अतः जड़ों के अच्छे विकास के लिए 5 ग्राम माइकोरायज़ा प्रति लीटर की दर से एक लीटर पानी में घोल बना लें, इसके बाद मिर्च की पौध की जड़ों को इस के घोल में 10 मिनट के लिए डूबा के रखें। यह प्रक्रिया अपनाने के बाद ही खेत में पौध प्रत्यारोपण करें। रोपाई के तुरन्त बाद खेत में हल्का पानी देना चाहिए।

  • मिर्च की पौध की रोपाई में लाइन से लाइन एवं पौधे से पौधे की दूरी 90-120 X 45-60 सेमी रखनी चाहिए।

  • मिर्च की रोप उपचार के लिए मायकोराइज़ा का उपयोग करने के बहुत लाभ हैं। माइकोराइजा एक ऐसा सहजीवी कवक है जो पौधे की जड़ों और उनके आस-पास की मिट्टी के बीच एक विशाल संबंध बनाने में सक्षम है, जिससे यह जड़ों के कार्य क्षेत्र का विस्तार करता है, और यह पौधे के लिए नाइट्रोजन और फास्फोरस जैसे पोषक तत्व की उपलब्धता को भी बढ़ाता है।

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ऐसे करें कपास की फसल में पत्ते काटने वाली इल्ली का नियंत्रण

How to control foliar caterpillar in cotton crop
  • कपास की फसल में इस कीट का प्रकोप आम तौर पर अंकुरण की शुरुआती अवस्था में ही हो जाता है। इसके मादा कीट पत्तियों के दोनों और गुच्छों में लगभग 2000 अंडे देती है।

  • ये इल्ली कपास की पत्तियों के हरे पदार्थ को खाते हैं जिससे पत्तियां भूरे या गहरे भूरे या काले रंग में बदल जाते हैं।

  • इसके प्रकोप को नियंत्रित करने के लिए इमामेक्टिन बेंजोएट 5% SG @ 100 ग्राम/एकड़ या नोवालूरान 5.25% + इमामेक्टिन बेंजोएट 0.9% SC @ 600मिली/एकड़ या प्रोफेनोफोस 40% + सायपरमेथ्रिन 4% EC @ 400 मिली/एकड़ की दर से छिड़काव करें।

  • जैविक उपचार के रूप में बवेरिया बेसियाना @ 500 ग्राम/एकड़ की दर से छिड़काव करें।

  • इस कीट से प्रभावित पौधों को खेत से निकाल कर बाहर कर दें एवं कीटनाशक के छिड़काव के कुछ समय बाद फसल की अच्छी वृद्धि के लिए विगरमैक्स जेल @ 400 ग्राम/एकड़ की दर से छिड़काव करें।

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किसान को दिखा मिर्च समृद्धि ड्रिप किट का कमाल, मिली जबरदस्त शुरूआती बढ़वार

Chilli Samridhi Drip Kit

भारतीय कृषक खेतों में खूब मेहनत करते हैं, पर ज्यादातर किसान इसलिए अपनी मेहनत का अच्छा फल नहीं प्राप्त कर पाते क्योंकि वे अपनी जानकारी के अनुसार पारंपरिक कृषि पर जोर देते हैं। जबकि आज के जमाने में कृषि क्षेत्र में कई बड़े अनुसंधान हुए हैं जिसके परिणाम स्वरूप कई नए कृषि उत्पादों की मदद से कृषि आधुनिक होने के साथ साथ लाभकारी भी हो गई है। मध्यप्रदेश के बड़वानी जिले के हाथोला गांव के निवासी किसान कैलाश मुकाती जी ने ग्रामोफ़ोन की सानिध्य में अपनी पारंपरिक कृषि को आधुनिक बनाया जिसका लाभ अब उन्हें देखने को मिल रहा है।

पिछले दिनों ग्रामोफ़ोन के कृषि विशेषज्ञ कैलाश जी के मिर्च के खेत का मुआयना करने पहुंचे थे जिसकी खेती उन्होंने पूरी तरह ग्रामोफ़ोन की सलाह पर की है। कैलाश जी ने इस दौरान बताया की वे फसल की बढ़वार देख कर वे पूरी तरह संतुष्ट हैं। उन्होंने अपनी फसल में ग्रामोफ़ोन मिर्च ड्रिप किट का इस्तेमाल किया था जिसके फलस्वरूप पौधों का विकास दूसरे आसपास के किसानों के पौधों की तुलना में ज्यादा बेहतर हुई है।

किसान भाई ने ड्रिप किट के इस्तेमाल से विकसित पौधे और बिना ड्रिप किट के इस्तेमाल से विकसित पौधे की तुलना करते हुए बताया की जड़, तना, पत्तियां सब कुछ ड्रिप किट के कारण बेहतर विकास प्राप्त कर रही है और फल भी आने लगे हैं।

ग़ौरतलब है की ग्रामोफ़ोन मिर्च ही नहीं बल्कि अन्य फ़सलों जैसे मक्का, कपास, सोयाबीन, मूंग आदि के लिए भी समृद्धि किट और ड्रिप किट निकाल चुका है जिसका परिणाम बहुत अच्छा देखने को मिल रहा है। कैलाश मुकाती के साथ साथ अन्य कई किसानों ने इसके इस्तेमाल से बेहतर परिणाम प्राप्त किये हैं। अगर आप भी इनमें से किसी किट का इस्तेमाल करना चाहते हैं तो ग्रामोफ़ोन के बाजार विकल्प पर जाना ना भूलें।

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बुआई के पूर्व सोयाबीन की फसल में की जाने वाली तैयारियां

Preparations to be done in soybean crop before sowing
  • सोयाबीन की बुआई के पूर्व ऐसे खेत का चयन करें जहाँ अधिक वर्षा की स्थिति में पर्याप्त जल निकासी की व्यवस्था हो।

  • पथरीली भूमि को छोड़कर कर सभी जगह सोयाबीन को बोया जा सकता है। खेत को समतल करके बुआई करने से पानी का निकास अच्छा होगा और पैदावार भी अच्छी प्राप्त होगी। मध्यम दोमट भूमि सोयाबीन की खेती के लिए उपयुक्त होती है।

  • खाली खेत की ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से 10 से 12 इंच गहराई तक करना चाहिए। एक बार हल चलाकर खेत को अच्छे से तैयार कर लें।

  • इसके बाद मिट्टी जनित कीटों के नियंत्रण के लिए मेट्राजियम कल्चर से मिट्टी उपचार करें। इस उपचार के द्वारा सफ़ेद ग्रब जैसे कीटों का नियंत्रण बहुत अच्छे से किया जा सकता है।

  • इसी के साथ पुरानी फसल के अवशेषों को सड़ाने के लिए डीकम्पोजर कल्चर का उपयोग करें। इसके कारण पुरानी फसल के अवशेष बहुत आसानी से उपयोगी खाद में बदल जाते हैं। इसका लाभ फसल को रोग मुक्त रखने में भी मिलता है।

  • बुआई के लिए ऐसी किस्म का चयन करें जो रोग एवं कीट प्रतिरोधी हो। बीजों का चयन करने के बाद बुआई के पहले बीजों की अंकुरण क्षमता परीक्षण अवश्य करें।

  • इससे सोयाबीन के बीज़ स्वस्थ हैं या नहीं यह भी पता चल जाता है साथ ही बुआई के लिए बीज की मात्रा की गणना करने में भी मदद मिलती है।

  • बुआई के पूर्व मिट्टी उपचार एवं बीज उपचार अवश्य करना चाहिए, ऐसा करने से मिट्टी एवं बीज़ जनित रोगों का नियंत्रण किया जा सकता है।

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