Management of Late blight in Potato

आलू में पिछेती झुलसा का प्रबंधन

  • पिछेती झुलसा आलू की मुख्य बीमारी है |
  • यह रोग फायटोप्थोरा इन्फेसटेन्स नामक एक कवक के कारण होता है यह रोग पत्तियों, तनो और कंदों को नुकसान पहुंचाता है।
  • बीमारी पहले पनीले, पत्ती के किनारों पर हल्के भूरे रंग के घावों के रूप में प्रकट होती है।
  • संक्रमित पत्ती के ऊतकों के मरने के बाद घाव गहरे भूरे, सूखे और भंगुर हो जाते हैं।
  • आर्द्र वातावरण में, फफूंद की वृद्धि को धब्बो के निचे की तरफ कपासी वृद्धि के रूप में देखा जा सकता है|
  • धब्बे काले हो जाते हैं क्योंकि प्रभावित पत्ते सड़ने लगते हैं। गंभीर संक्रमण के कारण सभी पत्ते सड़ जाते है सुख जाते है ओर जमीन पर गिर जाते है तना सुख जाता है एवं पौधा मर जाता है| जमीन के नीचे कंद भी फसल से पहले क्षय हो जाते हैं कंदों पर, हरापन को देखा जा सकता है।
  • आलू की पिछेती झुलसा के नियंत्रण के लिए, मैन्कोज़ेब 75% WP @ 50 ग्रा. / 15 लीटर पानी या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 50% WP @ 50 ग्रा. / 15 लीटर पानी या मेटालेक्सिल + मैन्कोज़ेब @ 50 ग्रा / 15 लीटर पानी का छिड़काव करना चाहिए।

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Vaccination For Dairy Animals

दुधारू पशुओ के लिए टीकाकरण:-

टीकाकरण  पशुओं के रोग के प्रति, प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है साथ ही उन्हे विभिन्न रोगकारक जैसे जीवाणु, विषाणु, परजीवी, प्रोटोजोआ तथा कवक के संक्रमण से लडऩे के लिए शरीर को तैयार करता है ।

क्र. रोग का नाम पहली खुराक पर आयु अनुवर्धक खुराक बाद की खुराक
1 खुरपका  मुहपका (एफएमडी) 4 महीने या उसके  ऊपर पहली खुराक के बाद 1 महीने छह माह
2 रक्तस्रावी
सेप्टिसिमीया (एचएस)
6 महीने  या उसके ऊपर सालाना या प्रकोप होने की सम्भावना पर
3 ब्लैक क्वार्टर (बी क्यू) 6 महीने  या उसके ऊपर सालाना या प्रकोप होने की सम्भावना पर
4 ब्रूसीलोसिस 4-8 महीने की आयु
(केवल मादा बछड़े)
जीवन में एक बार
5 थेइलेरिओसिस (Theileriosis) 3 महीने या उससे ऊपर जीवन में एक बार। केवल क्रॉसब्रीड और विदेशी मवेशियों के लिए आवश्यक है।
6 एंथ्रेक्स 4 महीने या ऊपर सालाना या प्रकोप होने की सम्भावना पर
7 आई .बी आर (IBR) 3 महीने  या उसके ऊपर -पहली खुराक के बाद 1 महीने छह मासिक (वर्तमान में भारत में टीका नहीं बनाई गई)
8 रेबीज (केवल काटने के बाद  ) काटने के तुरंत बाद चौथे  दिन पहली खुराक के 7 वे 14 वे 28वे एवं 90 वे दिन पर

मुख्य तथ्य

  • टीकाकरण के समय जानवरों का स्वास्थ्य अच्छा होना चाहिए।
  • उन जानवरों का टीका न करें जो पहले से ही किसी कारण से तनाव में हैं जैसे खराब मौसम की वजह से, चारा और पानी की कमी, रोग के प्रकोप से, परिवहन के बाद आदि|
  • टीकाकरण के एक से दो सप्ताह पहले पशुओं की डी -वार्मिंग करे  ।
  • पशु चिकित्सा या विशेषज्ञों की टीकाकरण सम्बन्धी सलाह का सख्ती से पालन करें।
  • टीकाकरण कंपनी, बैच संख्या, समाप्ति तिथि, खुराक आदि का रिकॉर्ड रखें।
  • टीकाकरण के बाद जानवरों के लिए तनाव मुक्त वातावरण बनाएँ।

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Greening in Potato Tubers

आलू के कंदों में हरापन –

  • यह आलू का एक शारीरिक विकार है, जो की आलू के कंदों का प्रकाश के संपर्क में आने से होता है|
  • जब आलू की फसल में मिट्टी चढ़ाने की क्रिया नहीं की जाती तो आलू का ऊपरी भाग प्रकाश के संपर्क में लगातार बना रहता इस कारण इसमें हरापन दिखाई देने लगता है|
  • यदि आलू को घर में किसी प्रकाश वाले स्थान पर संग्रहित किया जाता है, तो इस कारण भी कंदों में हरापन होने लगता है|
  • हरे आलू में सोलेनिन नामक रसायन बनने के कारण ही आलू में हरापन आता है, और इस कारण आलू का स्वाद कड़वा हो जाता है|

सावधानियाँ –

  • हरे आलू को खाने में प्रयोग नहीं करना चाहिए|
  • आलू की फसल में कंद बनने के दौरान (बुवाई के 35-40 दिनों बाद) मिट्टी चढ़ाने की क्रिया करनी चाहिए ताकि आलू का कन्द प्रकाश के सम्पर्क में ना आए|
  • आलू का संग्रहण अँधेरे वाले स्थान पर करना चाहिए, यदि कही से प्रकाश आ रहा है तो उस स्थान को बंद कर देना चाहिए|

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Drip irrigation a Boon

ड्रिप (बूँद-बूँद) सिंचाई एक वरदान –

अच्छी फसल के सफल उत्पादन के लिए पानी की उपलब्धता एक महत्वपूर्ण कारक है| लगातार बढ़ती हुई आबादी और जलवायु परिवर्तन के कारण ज़मीन में उपलब्ध जल की मात्रा कम होती जा रही है, जिस कारण लगातार फसलों के उत्पादन में कमी होते जा रही है| इसी समस्या के समाधान के लिए ड्रिप सिंचाई का आविष्कार किया गया जो कि, किसानों के लिए एक वरदान साबित हुई है| इस विधि में पानी को स्रोतों से प्लास्टिक की नलियों  द्वारा सीधा पौधों की जड़ों तक पहुंचाया जाता है और साथ ही यदि उर्वरकों को भी इनके माध्यम से पौधों की जड़ों तक पहुंचाया जाता है तो यह प्रक्रिया फर्टिगेशन कहलाती है|

लाभ –

  • अन्य सिंचाई प्रणाली की तुलना में 60-70% पानी की बचत होती है|  
  • ड्रिप सिंचाई के माध्यम से पौधों को अधिक दक्षता के साथ पोषक तत्त्व उपलब्ध करने में मदद मिलती है|
  • ड्रिप सिंचाई के माध्यम से पानी का अप-व्यय (वाष्पीकरण एवं रिसाव के कारण)  को रोक सकते हैं |
  • ड्रिप सिंचाई में पानी सीधे फसल की जड़ों में दिया जाता है। जिस कारण आस-पास की जमीन सूखी रहने से खरपतवार विकसित नहीं हो पाते हैं|

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Prevention/Control/Treatment of Mastitis

थनैला रोग से बचाव/रोकथाम/उपचार:-

थनैला बीमारी से अर्थिक क्षति का मूल्याकंन करने पर एक आश्चर्यजनक तथ्य सामने आता है जिसमें यह देखा गया हैं कि प्रत्यक्ष रूप मे यह बीमारी जितना नुकसान करती हैं, उससे कहीं ज्यादा अप्रत्यक्ष रूप में पशुपालकों को आर्थिक नुकसान पहुँचाती हैं। कभी-कभी थनैला रोग के लक्षण प्रकट नहीं होते हैं परन्तु दूध की कमी, दूध की गुणवत्ता में ह्रास एवं बिसुखने के पश्चात (ड्राई काउ) थन की आंशिक या पूर्ण रुप से  क्षति हो जाती है, जो अगले बियान के प्रारंभ में प्रकट होती है।

  • पशुओं के बांधे जाने वाले स्थान/बैठने के स्थान व दूध दुहने के स्थान की सफाई का विशेष ध्यान रखें।
  • दूध दुहने की तकनीक सही होनी चाहिए जिससे थन को किसी प्रकार की चोट न पहुंचे।
  • थन में किसी प्रकार की चोट (मामूली खरोंच भी) का समुचित उपचार तुरंत करायें।
  • थन का उपचार दुहने से पहले व बाद में दवा के घोल में (पोटेशियम परमैगनेट 1:1000 या क्लोरहेक्सिडीन 0.5  प्रतिशत) डुबो कर करें।
  • दूध की धार कभी भी फर्श पर न मारें।
  • समय-समय पर दूध की जाँच (काले बर्तन पर धार देकर) या प्रयोगशाला में करवाते रहें।
  • शुष्क पशु उपचार भी ब्यांने के बाद थनैला रोग होने की संभावना लगभग समाप्त कर देता है। इसके लिए पशु चिकित्सक से संपर्क करें।
  • रोगी पशुओं को स्वस्थ पशुओं से अलग रखें तथा उन्हें दुहने वाले भी अलग हों। अगर ऐसा संभव न हो तो रोगी पशु सबसे अंत में दुहें।

    उपचार

रोग का सफल उपचार प्रारम्भिक अवस्थाओं में ही संभव है अन्यथा रोग के बढ़ जाने पर थन बचा पाना कठिन हो जाता है। इससे बचने के लिए दुधारु पशु के दूध की जाँच समय पर करवा कर जीवाणुनाशक औषधियों द्वारा उपचार पशु चिकित्सक द्वारा करवाना चाहिए। प्रायः यह औषधियां थन में ट्‌यूब चढा कर तथा साथ ही मांसपेशी में इंजेक्शन द्वारा दी जाती है।

थन में ट्‌यूब चढा कर उपचार के दौरान पशु का दूध पीने योग्य नहीं होता। अतः अंतिम ट्‌यूब चढने के 48 घंटे बाद तक का दूध प्रयोग में नहीं लाना चाहिए। यह अत्यन्त आवश्यक है कि उपचार पूर्णरूपेण किया जाये, बीच में न छोडें। इसके अतिरिक्त यह आशा नहीं रखनी चाहिए कि (कम से कम) वर्तमान ब्यांत में पशु उपचार के बाद पुनः सामान्य पूरा दूध देने लग जाएगा।

थनैला बीमारी की रोकथाम प्रभावी ढ़ंग से करने के लिए निम्नलिखित विन्दुओं पर ध्यान देना आवश्यक हैं।

  • दूधारू पशुओं के रहने के स्थान की नियमित सफाई जरूरी हैं। फिनाईल के घोल तथा अमोनिया कम्पाउन्ड का छिड़काव करना चाहिए।
  • दूध दुहने के पश्चात् थन की यथोचित सफाई लिए लाल पोटाश या सेवलोन का प्रयोग किया जा सकता है।
  • दूधारू पशुओं में दूध बन्द होने की स्थिति में ड्राई थेरेपी द्वारा उचित ईलाज करायी जानी चाहिए।
  • थनैला होने पर तुरंत पशु चिकित्सक की सलाह से उचित ईलाज करायी जाय।
  • दूध की दुहाई निश्चित अंतराल पर की जाए ।

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Mastitis Disease in Dairy Cattle

दुधारू पशुओं में थनैला रोग:-  

  • दुधारू पशुओं को लगने वाला एक रोग है। थनैला रोग से प्रभावित पशुओं को रोग के प्रारंभ में थन गर्म हो जाता हैं तथा उसमें दर्द एवं सूजन हो जाती है। शारीरिक तापमान भी बढ़ जाता हैं। लक्षण प्रकट होते ही दूध की गुणवत्ता प्रभावित होती है। दूध में छटका, खून एवं पीभ (पस) की अधिकता हो जाती हैं। पशु खाना-पीना छोड़ देता है एवं अरूचि से ग्रसित हो जाता हैं।
  • यह बीमारी समान्यतः गाय, भैंस, बकरी एवं सूअर आदि पशुओं में पायी जाती है, थनैला बीमारी पशुओं में कई प्रकार के जीवाणु, विषाणु, फफूँद एवं यीस्ट तथा मोल्ड के संक्रमण से होता हैं। इसके अलावा चोट तथा मौसमी प्रतिकूलताओं के कारण भी थनैला हो जाता हैं।
  • प्राचीन काल से यह बीमारी दूध देने वाले पशुओं एवं उनके पशुपालको के लिए चिंता का विषय बना हुआ हैं। पशु धन विकास के साथ श्वेत क्रांति की पूर्ण सफलता में अकेले यह बीमारी सबसे बड़ी बाधक हैं। इस बीमारी से पूरे भारत में प्रतिवर्ष करोड़ों रूपये का नुकसान होता हैं, जो अतंतः पशुपालकों की आर्थिक स्थिति को प्रभावित करता हैं।

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Management of Carrot fly

गाजर की मक्खी का प्रबंधन:-

क्षति के लक्षण:-

  • गाजर की मक्खी गाजर के अंदर किनारे के चारो ओर अण्डे देती हैं|
  • लगभग 10 मिमी लम्बाई वाली ईल्ली गाजर की जड़ों के बाहरी भाग को मुख्यतः अक्टूम्बर नवम्बर के दौरान नुकसान पहुँचाती है, जो धीरे-धीरे जड़ों में प्रवेश कर जड़ों के आंतरिक भागों को नुकसान पहुंचने लगती है|
  • गाजर के पत्ते सूखने लग जाते है|  पत्तियां कुछ पीले रंग के साथ लाल रंग की हो जाती हैं। परिपक्व जड़ों की बाहरी त्वचा के नीचे भूरे रंग की सुरंगें दिखाई देने लगती हैं।

नियंत्रण –

  • गाजर कुल से संबंधित सभी फसलों मे 3-5 साल का फसल चक्र अपनाना चाहिए|
  • प्रोफेनोफोस 50 ईसी @ 400 मिली / एकड़ का छिड़काव करना चाहिए|
  • क्विनोलफोस 25 ईसी @ 300 मिली / एकड़ का छिड़काव करना चाहिए|

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Management of Wilt in Pea

मटर में उकठा रोग का प्रबंधन:-

  • विकसित कोपल एवं पत्तियों के किनारों का मुड़ना एवं पत्तियों का वेल्लित होना इस रोग को प्रथम एवं मुख्य लक्षण है ।  
  • पौधों के ऊपर के हिस्से पीले हो जाते हैं, कलिका की वृद्धि रुक जाती है, तने एवं ऊपर की पत्तियां अधिक कठोर, जड़ें भंगुर व नीचे की पत्तियां पीली होकर झड़ जाती है ।  
  • पूरा पौधा मुरझा जाता है व तना नीचे की और सिकुड़ जाता है ।

नियंत्रण:-

  • कार्बोक्सीन 37.5 % + थायरम 37.5 % @ 3 ग्राम/किलो बीज या ट्रायकोडर्मा विरिडी @  5 ग्राम/किलो बीज से  बुवाई के पूर्व  बीजोपचार करें व अधिक संक्रमित क्षेत्रों में जल्दी बुवाई न करें ।
  • 3 वर्ष का फसल चक्र अपनायें  ।
  • इस रोगों को आश्रय देने वाले निंदाओं को नष्ट करें ।
  • माइकोराइज़ा @ 4 किलो प्रति एकड़ 15 दिन की फसल में भुरकाव करें|
  • फूल आने से पहले थायोफिनेट मिथाईल 75% @ 300 ग्राम/एकड़ का स्प्रे करें|
  • फली बनते समय प्रोपिकोनाज़ोल 25% @ 125 मिली/ एकड़ का स्प्रे करें|

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Happy Govardhan Puja

हर खुशी आपके द्वार आए,

जो आप मांगे उससे अधिक पाए,

गोवर्धन पूजा में कृष्ण गुन गाए,

और ये त्यौहार खुशी से मनाए|

ग्रामोफ़ोन परिवार की और से गोवर्धन पूजा की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं|

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Happy Diwali

दिवाली की हार्दिक शुभकामनाएं एवं बधाई:-

दिवाली हैं रोशनी का त्यौहार,

लाये हर चेहरे पर मुस्कान,

सुख और समृधि की बाहर,

समेट लो सारी खुशियां अपनो का साथ और प्यार

इस पावन अवसर पर आप सभी को दिवाली का प्यार |

ग्रामोफोन टीम की और से दिवाली की हार्दिक शुभकामनाएं एवं बधाई|

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