फसलों की सुरक्षा के लिए कवक जनित रोगों का नियंत्रण है जरूरी

Control of fungal diseases is necessary for the protection of crops
  • किसी भी फसल से अच्छे उत्पादन की प्राप्ति के लिए फसल में कवक जनित रोगों का नियंत्रण करना बहुत आवश्यक होता है।

  • कवक जनित रोगों की रोकथाम में ‘सावधानी ही सुरक्षा है’ का मूल मंत्र काम करता है।

  • इस रोग का प्रकोप होने से पहले हीं उपचार करना बहुत आवश्यक होता है। अर्थात इसके लिए बुआई के पूर्व ही नियंत्रण कर लेना बहुत आवश्यक होता है।

  • सबसे पहले बुआई के पूर्व मिट्टी उपचार करना बहुत आवश्यक होता है।

  • मिट्टी उपचार के बाद बीजों को कवक रोगों से बचाव के लिए कवकनाशी से बीज़ उपचार करना बहुत आवश्यक है।

  • बुआई के 15-25 दिनों में कवकनाशी का छिड़काव करें जिससे की फसल को अच्छी शुरुआत मिल जाए एवं जड़ों विकास अच्छे से हो जाए।

  • इसके अधिक प्रकोप की स्थिति में हर 10 से 15 दिनों में छिड़काव करते रहें।

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रासायनिक उर्वरकों के साथ वर्मीकम्पोस्ट का उपयोग होगा लाभकारी

Use of vermicompost along with chemical fertilizers will be beneficial
  • वर्मीकम्पोस्ट में सभी पोषक तत्व, हार्मोन और एंजाइम पाए जाते हैं जो पौधों के लिए महत्वपूर्ण हैं, जबकि उर्वरकों में केवल नाइट्रोजन, फास्फोरस तथा पोटाश ही मिलते हैं।

  • इसका प्रभाव बहुत दिनों तक खेत में रहता है और पोषक तत्व धीरे-धीरे पौधों को प्राप्त होते रहते हैं।

  • यह फसलों के लिये संपूर्ण पोषक खाद है जिसमें जीवांश की मात्रा अधिक होती है। इससे भूमि में जल शोषण और जल धारण की शक्ति बढ़ती है एवं भूमि के कटाव को भी यह रोकने में मददगार साबित होता है।

  • इसमें हयूमिक एसिड होता है, जो जमीन के पी एच मान को कम करने में सहायक होता है। अनउपजाऊ भूमि को सुधारने में इसका महत्वपूर्ण योगदान होता है।

  • इसके प्रयोग से भूमि के अंदर पाए जाने वाले लाभकारी सूक्ष्म जीवों को भोजन मिलता है, जिससे ये अधिक क्रियाशील रहते हैं।

  • ये सभी फसलों के लिये प्राकृतिक उर्वरक के रूप में काम करते हैं और इसका कोई दुष्प्रभाव नहीं होता है।

  • इससे उपज की क्वालिटी जैसे आकार, रंग, चमक तथा स्वाद में सुधार होता है साथ हीं जमीन की उत्पादन क्षमता भी बढ़ती है।

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चाहिए गेहूँ की बंपर उपज तो बुआई से पहले जरूर करें बीज उपचार

If you want bumper yield of wheat then do seed treatment before sowing
  • बुआई के पहले बीजों का सही तरीके से उपचार कर लेने से बुआई के बाद गेहूँ के सभी बीजों का एक सामान अंकुरण होता है।

  • इससे मिट्टी जनित एवं बीज जनित रोगों से गेहूँ की फसल की सुरक्षा हो जाती है।

  • बीज उपचार करने से करनाल बंट, गेरुआ, लुज स्मट, ब्लाइट जैसे घातक रोगों से गेहूँ की फसल की रक्षा होती है।

  • गेहूँ की फसल में हम रासायनिक और जैविक दो विधियों से बीज उपचार कर सकते हैं।

  • रासायनिक उपचार के लिए बुआई से पहले बीजों को कार्बेन्डाजिम 12% + मैनकोज़ेब 63% @ 2.5 ग्राम/किलो बीज या कार्बोक्सिन 17.5% + थायरम 17.5% @ 2.5 ग्राम/किलो बीज से बीज उपचार करें।

  • जैविक उपचार के रूप में ट्रायकोडर्मा विरिडी @ 5 ग्राम/किलो + PSB @ 2 ग्राम/किलो बीज़ या PSB @ 2 ग्राम + माइकोराइजा @ 5 ग्राम/किलो बीज की दर से बीज उपचार करें।

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प्याज की नर्सरी में 20 दिनों की अवस्था में जरूर करें ये छिड़काव

Do this spraying in onion nursery at 20 days stage
  • प्याज की नर्सरी में बीजों की बुवाई के बीस दिनों के अंदर छिड़काव प्रबंधन करना बहुत आवश्यक होता है।

  • यह छिड़काव कवक जनित बीमारियों एवं कीटों के नियंत्रण के साथ साथ अच्छे विकास के लिए किया जाता है।

  • इस अवस्था में छिड़काव करने से प्याज़ की नर्सरी को अच्छी शुरूआती बढ़वार मिलती है।

  • कवक जनित रोगों से बचाव के लिए (नोवैक्सिल) मैनकोज़ेब 64% + मेटालैक्सिल 8% WP @ 60 ग्राम/पंप की दर छिड़काव करें।

  • कीटों के प्रबंधन के लिए (नोवालिस) फिप्रोनिल 40% + इमिडाक्लोप्रिड 40% WG @ 5 ग्राम/पंप की दर से छिड़काव करें।

  • इसके अलावा पौधों के तेज बढ़वार के लिए (नोवामैक्स) जिब्रेलिक एसिड 0.001% @ 75 एमएल/एसीआरई के हिसाब से छिड़काव करें।

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सरसों की फसल में सिंचाई से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारियां

Critical stages of irrigation in mustard crop
  • सरसों 110-120 दिन की अवधि वाली फसल है, इसमें पहली सिंचाई फूल आने के समय अर्थात बुआई के लगभग 30 दिन बाद करनी चाहिए।

  • इसमें दूसरी सिंचाई फली बनने के समय अथवा बुआई के लगभग 60-65 दिन बाद करनी चाहिए।

  • जब सरसों को मिश्रित फसल के रूप में उगाया जाता है तो इसकी सिंचाई मुख्य फसल के रूप में की जाती है।

  • कई क्षेत्रों में शुद्ध सरसों की फसल असिंचित फसल के रूप में उगाई जाती है।

  • सरसों की फसल फूल आने और दाने बनने की अवस्था में मिट्टी में नमी की कमी के प्रति बहुत संवेदनशील होती है। इसीलिए इसकी बुआई के 25 दिन बाद एक सिंचाई आवश्यक है।

  • यदि सिंचाई के निर्धारित समय के कुछ दिन पहले वर्षा होती है तो फसल की सिंचाई नहीं करनी चाहिए।

  • सरसों की फसल वाले खेतों में जल निकास की अच्छी व्यवस्था होनी चाहिए।

  • सरसों का पौधा जल जमाव की स्थिति के प्रति बहुत संवेदनशील होता है।

  • जब केवल एक सिंचाई उपलब्ध हो तो बुआई के 30 से 35 दिन बाद हीं सिंचाई करनी चाहिए।

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सरसों के किसान ऐसे करें खेत की तैयारी, इन बातों का रखें ध्यान

How to prepare the field for soybean sowing
  • सरसों की खेती दोमट या बलुई मिट्टी वाली भूमि जिसमें जल निकास की व्यवस्था अच्छी सबसे बेहतर मानी जाती है। अगर पानी के निकास का उचित व्यवस्था न हो तो प्रत्येक वर्ष फसल लेने से पहले ढेचा को हरी खाद के रूप में उगाना चाहिए।

  • अच्छी पैदावार के लिए जमीन का पी.एच.मान 7.0 होना चाहिए। ज्यादा अम्लीय एवं क्षारीय मिट्टी इसकी खेती के लिए उपयुक्त नहीं होती है।

  • बारानी क्षेत्र सरसों के बीजों की दर 5-6 कि.ग्रा/हैक्टेयर और सिंचित क्षेत्र में 4.5-5 कि.ग्रा/हैक्टेयर तक रखनी चाहिए।

  • सिंचित क्षेत्रों में खरीफ फसल की कटाई के बाद पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से और उसके बाद तीन-चार जुताईयाँ तवेदार हल से करनी चाहिए।

  • सिंचित क्षेत्र में जुताई करने के बाद खेत में पाटा लगाना चाहिए जिससे खेत में ढेले न बनें। गर्मी में गहरी जुताई करने से कीड़े मकौड़े व खरपतवार नष्ट हो जाते हैं।

  • अगर बोनी से पहले भूमि में नमी की कमी है तो खेत में पलेवा करना चाहिए। बोने से पूर्व खेत खरपतवार रहित कर लेना चाहिए।

  • बारानी क्षेत्रों में प्रत्येक बरसात के बाद तवेदार हल से जुताई कर नमी को संरक्षित करने के लिए पाटा लगाना चाहिए जिससे कि भूमि में नमी बनी रहे।

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आलू के रोपण की तीन प्रमुख विधियों की जानकारी

Information about three main methods of planting potatoes

भारत में आम तौर पर किसान आलू की रोपाई तीन तरीके से करते हैं। आज के इस लेख में आइये जानतें हैं इन्हीं तीन तरीकों की जानकारी।

  • मेड़ों पर आलू की रोपाई: इस विधि में खेत की तैयारी के बाद थोड़ी-थोड़ी दूरी पर मेढ़े बनाई जाती हैं। कुदाल की सहायता से 45-60 सेमी आलू की रोपाई मेढ़ों पर खुरपी की सहायता से की जाती है।

  • समतल विधि: इस विधि में आलू की रोपाई समतल सतह पर उथली खाँचों में की जाती है। अंकुरण के बाद जब पौधे 10-12 सेमी ऊंचाई के हो जाते हैं तो मेड़ें बनाई जाती हैं। यह विधि हल्की मिट्टी के लिए उपयुक्त मानी जाती है। बाद में, मेड़ों को मोटा करने के लिए दो से तीन अर्थिंग यानी मिट्टी चढाने की प्रक्रिया की जाती है।

  • मेड़ों के बाद समतल सतह पर आलू बोना: इस विधि में खेत तैयार किया जाता है और फिर समतल सतह पर उथले खांचे खोले जाते हैं। इसमें आलू कूड़ों में बोये जाते हैं तथा कंद लगाने के तुरंत बाद छोटी-छोटी मेढ़े बना देते हैं। बाद में इन मेढ़ों को किनारे की मिट्टी पर और मिट्टी डालकर मोटा बना दिया जाता है।

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आलू के किसान बीज चयन करते समय जरूर रखें इन बातों का ध्यान

Potato farmers must keep these things in mind while selecting seeds
  • आलू की खेती के लिए किसान अधिक उपज देने वाली, कीटों से मुक्त, स्वस्थ एवं शुद्ध बीजों का हीं चयन करें। अच्छी पैदावार के लिए प्रमाणित बीज का उपयोग बेहद जरूरी है।

  • हर 3-4 साल में बीज भंडार को बदलने की भी सलाह दी जाती है क्योंकि ऐसा ना करने से किस्में ख़राब हो जाती हैं और परिणाम स्वरूप पैदावार कम मिलती है।

  • रोपण के लिए स्वस्थ, मध्यम या छोटे आकार के अंकुरित कंदों का चयन करना चाहिए।

  • आदर्श रोपण के लिए कंद का आकार लगभग 2.5 सेमी व्यास और 25-40 ग्राम वज़न होना चीहिए।

  • बड़े आकार के कंदों को काटा जा सकता है। प्रत्येक टुकड़े में 2-3 आँखों के आकार के लंबे टुकड़े होने चाहिए।

  • पिछले वर्ष की फसल का बीज होना चाहिए, बीज दर लगभग 1.5 से 2.5 टन प्रति हेक्टेयर।

  • मुख्य फसल के लिए कटे हुए कंद लगाए जा सकते हैं। कंदों को काटते समय सावधानी बरतनी चाहिए।

  • प्रत्येक टुकड़े में दो से तीन आंखें और वजन कम से कम 25 ग्राम होनी चाहिए। यदि कोई रोगग्रस्त कंद दिखाई दे, तो उससे हटा देना चाहिए।

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स्वयं बनाएं जीरो एनर्जी कूल चैम्बर, जानें इसकी निर्माण विधि

Construction Method of Zero Energy Cool Chamber
  • शून्य ऊर्जा शीत गृह के निर्माण के लिए हवादार और छायादार जगह का चुनाव करना चाहिए। 

  • ईंटों को जमा कर एक आयताकार करीब 165 X 115 सेमी के चबूतरे का निर्माण किया जाता है। इस चबूतरे पर गारे की सहायता से ईंटों की दोहरी दीवार का निर्माण किया जाता है। ईंटों की दोहरी दीवार के मध्य 7-8 सेमी तक स्थान खाली रखा जाता है। दोहरी दीवार की ऊंचाई 60-65 सेमी. तक रखी जाती है। 

  • इसके पश्चात छनी हुई बजरी को जल में भिगोकर दोहरी दीवार के मध्य बने खाली स्थान में भरा जाता है। बांस, टाट या बोरी के टुकड़ों से ढक्कन का निर्माण किया जाता है। इस ढक्कन की लंबाई व चौड़ाई पूरे शीत गृह के समकक्ष रखी जाती है। 

  • पानी की टंकी को 4 से 5 फीट की ऊंचाई पर रख देते हैं जिसमें 1 पाईप को लगा दिया जाता है। पाईप को ईंटों की दोहरी दीवारों के मध्य चारो तरफ घुमाया जाता है साथ ही पाइप में 15-15 सेमी. की दूरी पर छेद कर दिए जाते हैं जिससे जल का बून्द बून्द कर के रिसाव होता है और यह पानी रेत व ईंटों को गीला रखता है।

  • फलों और सब्जियों को प्लास्टिक की टोकरी में रखकर उन्हें इस शीत गृह में रख दिया जाता है और ऊपर से ढक्कन लगा दिया जाता है।  

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पशुओं में खुरपका एवं मुंहपका रोग को इसके लक्षणों से पहचानें

Identify foot and mouth disease in animals by its symptoms

पशुओं में होने वाला खुरपका एवं मुंहपका रोग दरअसल नंगी आँखों से न दिख पाने वाले वाइरस द्वारा होता है। आइये जानते हैं इस रोग के फैलने के क्या क्या कारण हो सकते हैं। 

रोग के फैलने के कारण:

ये रोग मुख्यतः पहले से रोग से संक्रमित जानवर के विभिन्न स्त्राव और उत्सर्जित द्रव जैसे लार, गोबर, दूध के साथ अन्य स्वस्थ सीधे संपर्क मे आने, दाना, पानी, घास, बर्तन, दूध निकालने वाले व्यक्ति के हाथों से और हवा के माध्यम से फैलता है। इस स्त्राव मे विषाणु बहुत अधिक संख्या मे होते हैं और स्वस्थ जानवर के शरीर मे मुँह और नाक के माध्यम से प्रवेश कर जाते हैं। 

रोग के लक्षण:

यह रोग होने पर पशु को तेज बुखार (104-106०F) होता है। बीमार पशु के मुँह मे मुख्यत जीभ के उपर, होठो के अंदर, मसूड़ों पर साथ ही खुरो के बीच की जगह पर छोटे छोटे छाले बन जाते हैं। फिर धीरे–धीरे ये छाले आपस में मिलकर बड़े छाले बनाते हैं। आगे चलकर ये छाले फूट जाते हैं और उनमें जख्म हो जाती है। मुँह मे छाले हो जाने की वजह से पशु जुगाली बंद कर देता है और खाना पीना छोड़ देते हैं, मुँह से निरंतर लार गिरती रहती है, साथ ही मुँह चलाने पर चाप चाप की आवाज़ भी सुनाई देती है। दुधारू पशुओं में दूध का उत्पादन 80% तक कम हो जाता है। पशु कमजोर होने लगते हैं। प्रभावित पशु स्वस्थ्य होने के उपरान्त भी महीनों तक और कई बार जीवनपर्यन्त हांफते रहता है।

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