प्याज की नर्सरी में 20 दिनों की अवस्था में जरूर करें ये छिड़काव

Do this spraying in onion nursery at 20 days stage
  • प्याज की नर्सरी में बीजों की बुवाई के बीस दिनों के अंदर छिड़काव प्रबंधन करना बहुत आवश्यक होता है।

  • यह छिड़काव कवक जनित बीमारियों एवं कीटों के नियंत्रण के साथ साथ अच्छे विकास के लिए किया जाता है।

  • इस अवस्था में छिड़काव करने से प्याज़ की नर्सरी को अच्छी शुरूआती बढ़वार मिलती है।

  • कवक जनित रोगों से बचाव के लिए (नोवैक्सिल) मैनकोज़ेब 64% + मेटालैक्सिल 8% WP @ 60 ग्राम/पंप की दर छिड़काव करें।

  • कीटों के प्रबंधन के लिए (नोवालिस) फिप्रोनिल 40% + इमिडाक्लोप्रिड 40% WG @ 5 ग्राम/पंप की दर से छिड़काव करें।

  • इसके अलावा पौधों के तेज बढ़वार के लिए (नोवामैक्स) जिब्रेलिक एसिड 0.001% @ 75 एमएल/एसीआरई के हिसाब से छिड़काव करें।

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सरसों की फसल में सिंचाई से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारियां

Critical stages of irrigation in mustard crop
  • सरसों 110-120 दिन की अवधि वाली फसल है, इसमें पहली सिंचाई फूल आने के समय अर्थात बुआई के लगभग 30 दिन बाद करनी चाहिए।

  • इसमें दूसरी सिंचाई फली बनने के समय अथवा बुआई के लगभग 60-65 दिन बाद करनी चाहिए।

  • जब सरसों को मिश्रित फसल के रूप में उगाया जाता है तो इसकी सिंचाई मुख्य फसल के रूप में की जाती है।

  • कई क्षेत्रों में शुद्ध सरसों की फसल असिंचित फसल के रूप में उगाई जाती है।

  • सरसों की फसल फूल आने और दाने बनने की अवस्था में मिट्टी में नमी की कमी के प्रति बहुत संवेदनशील होती है। इसीलिए इसकी बुआई के 25 दिन बाद एक सिंचाई आवश्यक है।

  • यदि सिंचाई के निर्धारित समय के कुछ दिन पहले वर्षा होती है तो फसल की सिंचाई नहीं करनी चाहिए।

  • सरसों की फसल वाले खेतों में जल निकास की अच्छी व्यवस्था होनी चाहिए।

  • सरसों का पौधा जल जमाव की स्थिति के प्रति बहुत संवेदनशील होता है।

  • जब केवल एक सिंचाई उपलब्ध हो तो बुआई के 30 से 35 दिन बाद हीं सिंचाई करनी चाहिए।

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सरसों के किसान ऐसे करें खेत की तैयारी, इन बातों का रखें ध्यान

How to prepare the field for soybean sowing
  • सरसों की खेती दोमट या बलुई मिट्टी वाली भूमि जिसमें जल निकास की व्यवस्था अच्छी सबसे बेहतर मानी जाती है। अगर पानी के निकास का उचित व्यवस्था न हो तो प्रत्येक वर्ष फसल लेने से पहले ढेचा को हरी खाद के रूप में उगाना चाहिए।

  • अच्छी पैदावार के लिए जमीन का पी.एच.मान 7.0 होना चाहिए। ज्यादा अम्लीय एवं क्षारीय मिट्टी इसकी खेती के लिए उपयुक्त नहीं होती है।

  • बारानी क्षेत्र सरसों के बीजों की दर 5-6 कि.ग्रा/हैक्टेयर और सिंचित क्षेत्र में 4.5-5 कि.ग्रा/हैक्टेयर तक रखनी चाहिए।

  • सिंचित क्षेत्रों में खरीफ फसल की कटाई के बाद पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से और उसके बाद तीन-चार जुताईयाँ तवेदार हल से करनी चाहिए।

  • सिंचित क्षेत्र में जुताई करने के बाद खेत में पाटा लगाना चाहिए जिससे खेत में ढेले न बनें। गर्मी में गहरी जुताई करने से कीड़े मकौड़े व खरपतवार नष्ट हो जाते हैं।

  • अगर बोनी से पहले भूमि में नमी की कमी है तो खेत में पलेवा करना चाहिए। बोने से पूर्व खेत खरपतवार रहित कर लेना चाहिए।

  • बारानी क्षेत्रों में प्रत्येक बरसात के बाद तवेदार हल से जुताई कर नमी को संरक्षित करने के लिए पाटा लगाना चाहिए जिससे कि भूमि में नमी बनी रहे।

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आलू के रोपण की तीन प्रमुख विधियों की जानकारी

Information about three main methods of planting potatoes

भारत में आम तौर पर किसान आलू की रोपाई तीन तरीके से करते हैं। आज के इस लेख में आइये जानतें हैं इन्हीं तीन तरीकों की जानकारी।

  • मेड़ों पर आलू की रोपाई: इस विधि में खेत की तैयारी के बाद थोड़ी-थोड़ी दूरी पर मेढ़े बनाई जाती हैं। कुदाल की सहायता से 45-60 सेमी आलू की रोपाई मेढ़ों पर खुरपी की सहायता से की जाती है।

  • समतल विधि: इस विधि में आलू की रोपाई समतल सतह पर उथली खाँचों में की जाती है। अंकुरण के बाद जब पौधे 10-12 सेमी ऊंचाई के हो जाते हैं तो मेड़ें बनाई जाती हैं। यह विधि हल्की मिट्टी के लिए उपयुक्त मानी जाती है। बाद में, मेड़ों को मोटा करने के लिए दो से तीन अर्थिंग यानी मिट्टी चढाने की प्रक्रिया की जाती है।

  • मेड़ों के बाद समतल सतह पर आलू बोना: इस विधि में खेत तैयार किया जाता है और फिर समतल सतह पर उथले खांचे खोले जाते हैं। इसमें आलू कूड़ों में बोये जाते हैं तथा कंद लगाने के तुरंत बाद छोटी-छोटी मेढ़े बना देते हैं। बाद में इन मेढ़ों को किनारे की मिट्टी पर और मिट्टी डालकर मोटा बना दिया जाता है।

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आलू के किसान बीज चयन करते समय जरूर रखें इन बातों का ध्यान

Potato farmers must keep these things in mind while selecting seeds
  • आलू की खेती के लिए किसान अधिक उपज देने वाली, कीटों से मुक्त, स्वस्थ एवं शुद्ध बीजों का हीं चयन करें। अच्छी पैदावार के लिए प्रमाणित बीज का उपयोग बेहद जरूरी है।

  • हर 3-4 साल में बीज भंडार को बदलने की भी सलाह दी जाती है क्योंकि ऐसा ना करने से किस्में ख़राब हो जाती हैं और परिणाम स्वरूप पैदावार कम मिलती है।

  • रोपण के लिए स्वस्थ, मध्यम या छोटे आकार के अंकुरित कंदों का चयन करना चाहिए।

  • आदर्श रोपण के लिए कंद का आकार लगभग 2.5 सेमी व्यास और 25-40 ग्राम वज़न होना चीहिए।

  • बड़े आकार के कंदों को काटा जा सकता है। प्रत्येक टुकड़े में 2-3 आँखों के आकार के लंबे टुकड़े होने चाहिए।

  • पिछले वर्ष की फसल का बीज होना चाहिए, बीज दर लगभग 1.5 से 2.5 टन प्रति हेक्टेयर।

  • मुख्य फसल के लिए कटे हुए कंद लगाए जा सकते हैं। कंदों को काटते समय सावधानी बरतनी चाहिए।

  • प्रत्येक टुकड़े में दो से तीन आंखें और वजन कम से कम 25 ग्राम होनी चाहिए। यदि कोई रोगग्रस्त कंद दिखाई दे, तो उससे हटा देना चाहिए।

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स्वयं बनाएं जीरो एनर्जी कूल चैम्बर, जानें इसकी निर्माण विधि

Construction Method of Zero Energy Cool Chamber
  • शून्य ऊर्जा शीत गृह के निर्माण के लिए हवादार और छायादार जगह का चुनाव करना चाहिए। 

  • ईंटों को जमा कर एक आयताकार करीब 165 X 115 सेमी के चबूतरे का निर्माण किया जाता है। इस चबूतरे पर गारे की सहायता से ईंटों की दोहरी दीवार का निर्माण किया जाता है। ईंटों की दोहरी दीवार के मध्य 7-8 सेमी तक स्थान खाली रखा जाता है। दोहरी दीवार की ऊंचाई 60-65 सेमी. तक रखी जाती है। 

  • इसके पश्चात छनी हुई बजरी को जल में भिगोकर दोहरी दीवार के मध्य बने खाली स्थान में भरा जाता है। बांस, टाट या बोरी के टुकड़ों से ढक्कन का निर्माण किया जाता है। इस ढक्कन की लंबाई व चौड़ाई पूरे शीत गृह के समकक्ष रखी जाती है। 

  • पानी की टंकी को 4 से 5 फीट की ऊंचाई पर रख देते हैं जिसमें 1 पाईप को लगा दिया जाता है। पाईप को ईंटों की दोहरी दीवारों के मध्य चारो तरफ घुमाया जाता है साथ ही पाइप में 15-15 सेमी. की दूरी पर छेद कर दिए जाते हैं जिससे जल का बून्द बून्द कर के रिसाव होता है और यह पानी रेत व ईंटों को गीला रखता है।

  • फलों और सब्जियों को प्लास्टिक की टोकरी में रखकर उन्हें इस शीत गृह में रख दिया जाता है और ऊपर से ढक्कन लगा दिया जाता है।  

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पशुओं में खुरपका एवं मुंहपका रोग को इसके लक्षणों से पहचानें

Identify foot and mouth disease in animals by its symptoms

पशुओं में होने वाला खुरपका एवं मुंहपका रोग दरअसल नंगी आँखों से न दिख पाने वाले वाइरस द्वारा होता है। आइये जानते हैं इस रोग के फैलने के क्या क्या कारण हो सकते हैं। 

रोग के फैलने के कारण:

ये रोग मुख्यतः पहले से रोग से संक्रमित जानवर के विभिन्न स्त्राव और उत्सर्जित द्रव जैसे लार, गोबर, दूध के साथ अन्य स्वस्थ सीधे संपर्क मे आने, दाना, पानी, घास, बर्तन, दूध निकालने वाले व्यक्ति के हाथों से और हवा के माध्यम से फैलता है। इस स्त्राव मे विषाणु बहुत अधिक संख्या मे होते हैं और स्वस्थ जानवर के शरीर मे मुँह और नाक के माध्यम से प्रवेश कर जाते हैं। 

रोग के लक्षण:

यह रोग होने पर पशु को तेज बुखार (104-106०F) होता है। बीमार पशु के मुँह मे मुख्यत जीभ के उपर, होठो के अंदर, मसूड़ों पर साथ ही खुरो के बीच की जगह पर छोटे छोटे छाले बन जाते हैं। फिर धीरे–धीरे ये छाले आपस में मिलकर बड़े छाले बनाते हैं। आगे चलकर ये छाले फूट जाते हैं और उनमें जख्म हो जाती है। मुँह मे छाले हो जाने की वजह से पशु जुगाली बंद कर देता है और खाना पीना छोड़ देते हैं, मुँह से निरंतर लार गिरती रहती है, साथ ही मुँह चलाने पर चाप चाप की आवाज़ भी सुनाई देती है। दुधारू पशुओं में दूध का उत्पादन 80% तक कम हो जाता है। पशु कमजोर होने लगते हैं। प्रभावित पशु स्वस्थ्य होने के उपरान्त भी महीनों तक और कई बार जीवनपर्यन्त हांफते रहता है।

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सल्फर का फसल के लिए क्या होता है महत्व, जानें इसके लाभ

Importance of Sulfur in crops
  • सल्फर (गंधक) फसलों में प्रोटीन के प्रतिशत को बढ़ाने में सहायक होता है साथ ही साथ यह पर्णहरित लवक के निर्माण में योगदान देता है जिसके कारण पत्तियां हरी रहती हैं तथा पौधों के लिए भोजन का निर्माण हो पाता है।

  • सल्फर पौधों में नाइट्रोजन की क्षमता और उपलब्धता को बढ़ाता है।

  • दलहनी फसलों में, सल्फर के कारण हीं जड़ों में अधिक गाठों का विकास होता है। इससे जड़ों में उपस्थित राइज़ोबियम नामक जीवाणु, वायुमंडल में उपस्थित नाइट्रोजन को लेकर, फसलों को उपलब्ध कराते हैं।   

  • तम्बाकू, सब्जियों एवं चारे वाली फसलों की गुणवत्ता भी सल्फर के कारण बढ़ जाती है।

  • सल्फर का महत्वपूर्ण उपयोग तिलहन फसलों में प्रोटीन और तेल की मात्रा में वृद्धि करना है। 

  • सल्फर आलू की फसल में स्टार्च की मात्रा को बढ़ाता है।

  • सल्फर को मिट्टी का सुधारक भी कहा जाता है क्योंकि यह मिट्टी के पीएच को कम करता है।

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रबी पिकांमध्ये दीमक नियंत्रण

  • टेरमाइट एक बहुभुज कीटक आहे, ज्याचा अर्थ असा आहे की, ते सर्व पिकांवर आक्रमण करते, दीमक वनस्पतींच्या मुळांना बरेच नुकसान करतात. प्रादुर्भाव जास्त झाल्यावर ते स्टेमही खातात.

  • बटाटा, टोमॅटो, मिरची, वांगे, फुलकोबी, कोबी, मोहरी, मुळा, गहू इत्यादी पिके दीमतेमुळे संक्रमित होणारी प्रमुख पिके आहेत.

  • या किडीवर नियंत्रण ठेवण्यासाठी वेळेवर व्यवस्थापन आवश्यक आहे.

  • कीटकनाशकासह बीजोपचारानंतर बियाणे पेरले पाहिजे

  • कीटकनाशक मेट्राझियमने मातीचा उपचार करणे आवश्यक आहे

  • कच्च्या शेणाचे खत वापरले जाऊ नये, कारण कच्चे शेण हे या किडीचे मुख्य अन्न आहे.

  • दिमकांवर नियंत्रण ठेवण्यासाठी, क्लोरोपायरीफोस 20% ईसी 1 लिटर 4 किलो वाळू मिसळून पेरणीच्या वेळी शेतात लावावे.

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भिंडी की फसल में पीला शिरा मोज़ेक वायरस प्रकोप के लक्षण एवं नियंत्रण

Symptoms and control of yellow vein mosaic virus in okra crop

पीला शिरा मोज़ेक दरअसल एक वायरस यानी विषाणु जनित रोग है जो फसल में उपस्थित रसचूसक कीट के कारण से और ज्यादा फैलता है। यह भिंडी की फसल के लिए वर्तमान समय में बेहद घातक हो सकता है।  

लक्षण: इस रोग के शुरुआती अवस्था में ग्रासित पौधे की पत्तियों की शिराएँ पीली पड़ने लगती हैं और जैसे ही रोग बढ़ता जाता है वैसे वैसे पीलापन पूरी पत्ती पर फैलता जाता है और इसके परिणाम से पत्तियाँ मुड़ने एवं सिकुड़ने लगती है, पौधे की वृद्धि रुक जाती है। प्रभावित पौधे के फल हल्के पीले, विकृत और सख्त हो जाते हैं।

नियंत्रण: यह रोग मुख्यत सफेद मक्खी से फैलता है, इसके नियंत्रण के लिए नोवासेटा (एसिटामिप्रिड 20% SP) @ 30 ग्राम प्रती एकड़ या पेजर (डायफैनथीयुरॉन 50% WP) 240 ग्राम/एकड़ के दर से 150 से 200 लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें।

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