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या रोगाची लक्षणे प्रथम जुन्या पानांवर दिसतात, त्यानंतर ती वनस्पतीच्या इतर भागांत आढळतात.
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वाटाणा पानांच्या दोन्ही पृष्ठभागांवर भुकटी जमा केली जाते. नंतर मऊ देठ, शेंगा इत्यादींवर पावडरी डाग तयार होतात. एकतर फळांचा विकास होत नाही किंवा तो लहान राहात नाही.
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हरभऱ्यामध्ये पेरणीनंतर 20-25 दिवसांत आवश्यक फवारणी करावी
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हरभरा हे भारतातील सर्वात महत्वाचे कडधान्य पीक आहे. याचा वापर मानवी वापरासाठी तसेच जनावरांना खाण्यासाठी केला जातो. ताजी हिरवी पाने आणि चणे भाजी म्हणून आणि भुसाचा उपयोग गुरांसाठी उत्कृष्ट चारा म्हणून केला जातो.
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हरभरा पिकात पेरणीच्या 20-25 दिवसांत कीटक व बुरशीजन्य रोगांपासून पिकाचे संरक्षण करण्यासाठी, प्रथमकार्बेन्डाजिम 12 % + मैंकोजेब 63% 300 ग्रॅम + प्रोफेनोफॉस 40% + साइपरमेथ्रिन 4% ईसी 400 मिली प्रति एकर या प्रमाणात फवारणी करावी.
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पिकाच्या वनस्पतिवत् वाढीसाठी आणि विकासासाठी, 400 ग्रॅम दराने सीवेड किंवा जिब्रेलिक अम्ल 0.001% 300 मिली प्रति एकर दराने शिंपडावे.
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या सर्व फवारण्यांसह, सिलिकॉन आधारित स्टीकर 5 मिली प्रति 15 लिटर पाण्यात वापरणे आवश्यक आहे.
सब्जी वर्गीय फसलों में मल्चिंग लगाने से मिलते हैं कई फायदें
मल्चिंग एक ऐसी तकनीक है जिसमें फसलों के स्वस्थ विकास को बढ़ावा देने के लिए मिट्टी की सतह को एक मोटी परत से ढक दिया जाता है। यह सब्जी वाली फसलों के स्वस्थ विकास के लिए एक उपयोगी तकनीक है। मल्चिंग के उपयोग से निम्नलिखित लाभ होते हैं:
उन्नत पोषक तत्व प्रतिधारण: मल्चिंग से मिट्टी में पोषक तत्वों की मात्रा बढ़ जाती है, जिससे वे पौधों को अधिक उपलब्ध होते हैं, जिसके परिणामस्वरूप स्वस्थ और अधिक उत्पादक फसलें प्राप्त होती हैं।
जल संरक्षण: मल्चिंग वाष्पीकरण को कम करके, मिट्टी को अधिक समय तक नम रखने और सिंचाई की आवश्यकता को कम करके पानी के संरक्षण में मदद करता है।
खरपतवार नियंत्रण: मल्चिंग खरपतवार की वृद्धि को कम करता है, एक अवरोध प्रदान करता है जो खरपतवार के अंकुरों को बढ़ने से रोकता है और शाकनाशियों की आवश्यकता को कम करता है।
मृदा अपरदन नियंत्रण: मल्चिंग मिट्टी को एक जगह पर रोककर और मिट्टी पर वर्षा के प्रभाव को कम करके मिट्टी के कटाव को रोकने में मदद करता है।
बेहतर मृदा स्वास्थ्य: मल्चिंग कार्बनिक पदार्थ सामग्री को बढ़ाकर, मिट्टी की संरचना में सुधार, और लाभकारी माइक्रोबियल गतिविधि को बढ़ावा देकर मिट्टी के स्वास्थ्य में सुधार करने में मदद करता है।
फसल उत्पादकता में वृद्धि: मल्चिंग को ऐसा वातावरण प्रदान करके फसल उत्पादकता बढ़ाने के लिए दिखाया गया है जो पौधों की वृद्धि और विकास के लिए अनुकूल है।
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टमाटर की फसल में जीवाणु धब्बा रोग के लक्षण एवं नियंत्रण के उपाय!
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टमाटर की फसल में जीवाणु धब्बा एक विनाशकारी रोग है। यह टमाटर के पौधे के सभी हिस्सों को प्रभावित कर सकता है, जिसमें पत्तियां, तना और फल शामिल हैं।
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इसके प्रकोप की शुरुआती अवस्था में टमाटर के पत्ती पर पानी से लथपथ गोलाकार धब्बे दिखाई देते हैं।
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सामान्य तौर पर ये गोलाकार धब्बे गहरे भूरे से काले रंग के पत्तियों और तनों पर होते हैं। धीरे धीरे ये धब्बे आपस में जुड़कर बड़ा आकार लेते हैं और पत्ती पीली पड़ जाती है।
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हरे फलों पर यह धब्बे आमतौर पर छोटे, उभरे हुए और छाले जैसे होते हैं। जैसे-जैसे फल पकते हैं, धब्बे बड़े हो जाते हैं और भूरे, खुरदुरे हो जाते हैं। जिससे फल की क्वालिटी ख़राब हो जाती है।
नियंत्रण के उपाय
इस रोग के नियंत्रण के लिए तमिलनाडु एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के अनुसार धानुकोप (कॉपर ऑक्सिक्लोराइड 50% डब्ल्यूपी) @ 1 किग्रा + सिलिकोमैक्स गोल्ड @ 50 मिली प्रति एकड़, 150 से 200 लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें।
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ठिबक सिंचन- एक वरदान
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चांगल्या पिकांच्या यशस्वी उत्पादनासाठी पाण्याची उपलब्धता हा एक महत्त्वाचा घटक आहे. सतत वाढणारी लोकसंख्या आणि हवामान बदलांमुळे भूगर्भात उपलब्ध पाण्याचे प्रमाण कमी होत आहे.
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त्यामुळे पिकांचे उत्पादन सतत कमी होत आहे. या समस्येचे निराकरण करण्यासाठी ठिबक सिंचनचा शोध लावला गेला. जो शेतकऱ्यांसाठी वरदान ठरला आहे.
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या पद्धतीत, प्लास्टिक पाईपच्या स्त्रोतांमधून थेट रोपांच्या मुळांपर्यंत पोहोचते त्यास फ्रिटीगेशन म्हणतात.
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इतर सिंचन प्रणालींच्या तुलनेत 60 ते 70% पाण्याची बचत होते.
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ठिबक सिंचन वनस्पतींना अधिक कार्यक्षमतेसह पोषक पुरवण्यास मदत करते.
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ठिबक सिंचनामुळे पाण्याचे नुकसान टाळता येते. (बाष्पीभवन आणि गळतीमुळे).
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ठिबक सिंचनातील पाणी थेट पिकांंच्या मुळांत दिले जाते. ज्यामुळे सभोवतालची जमीन कोरडी होते आणि तण वाढू शकत नाही.
सरसों में विरल अर्थात थिनिंग करना है बेहद जरूरी, जानें इसके फायदे!
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सरसों की फसल की बुवाई के 3 से 4 सप्ताह बाद पौधे से पौधे के बीच की दूरी 10 से 15 सेंटीमीटर तक बनाए रखने के लिए अतिरिक्त जन्में पौधों को निकाल देने की प्रक्रिया विरल या थिनिंग कहलाती है।
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यह प्रक्रिया फसलों में अधिक शाखा आने एवं स्वस्थ पौध विकास के लिए बहुत जरूरी होती है और सभी किसानों को यह जरूर करना चाहिए।
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इससे प्रक्रिया के उपयोग से फसल में बीमारी एवं कीटों का प्रकोप कम होता है तथा फसल में फली एवं दाने का आकार बड़ा होता है।
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जो फसलें एक दूसरे से सही दूरी पर नहीं बोई जाती हैं, उनमें पतला करने की यह प्रक्रिया बेहत आवश्यक होती है।
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मटर में पाउडरी मिल्ड्यू की समस्या एवं नियंत्रण के उपाय!
क्षति के लक्षण: पाउडरी मिल्ड्यू रोग के लक्षण पत्तियों, कलियों, टहनियों व फूलों पर सफेद पाऊडर के रूप में दिखाई देता हैं। पत्तियों की दोनों सतह पर सफेद रंग के छोटे-छोटे धब्बे नजर आते हैं जो धीरे-धीरे फैलकर पत्ती की दोनों सतह पर फैल जाते है। रोगी पत्तियां सख्त होकर मुड़ जाती हैं। अधिक संक्रमण होने पर पत्तियां सूख कर झड़ जाती हैं।
नियंत्रण के उपाय: इस रोग के नियंत्रण के लिए, धानुस्टीन (कार्बेन्डाजिम 50% डब्ल्यूपी) @ 100 ग्राम या वोकोविट (सल्फर 80% डब्ल्यूडीजी) @ 1 किलो + सिलिकोमैक्स गोल्ड @ 50 मिली प्रति एकड़ 150 से 200 लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें।
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मुख्य खेत में रोपाई के पहले जरूर करें प्याज के पौध का उपचार
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प्याज की पौध की मुख्य खेत में रोपाई के लिए सबसे पहले स्वस्थ पौध का चयन करें एवं 12 से 14 सेमी लंबी या नर्सरी में बुवाई के 5-6 सप्ताह पुरानी पौध की हीं रोपाई करें।
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कभी कभी प्याज के पौध.. मिट्टी, जलवायु और सिंचाई के आधार पर 6-7 सप्ताह में भी रोपाई के योग्य हो जाते हैं।
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बहरहाल रोपाई के पूर्व प्याज की पौध की जड़ों को राइजोकेअर (ट्राइकोडर्मा विरिडी 1.0 % डब्ल्यूपी) @ 2.5 ग्राम या स्प्रिंट (कार्बेन्डाजिम 25%+ मैनकोजेब 50% डब्ल्यूएस) @ 3 ग्राम प्रति लीटर पानी के हिसाब से तैयार घोल में 10 मिनट तक डूबा कर रखें।
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इससे प्रारंभिक अवस्था में आने वाले रोग जैसे- आद्र गलन, जड़ गलन से फसल को बचाया जा सकता है।
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मिरची पिकामध्ये चिनोफोरा ब्लाइट रोगाची ओळख आणि प्रतिबंधात्मक उपाय योजना
मिरची पिकामध्ये या रोगाचे मुख्य कारण चिनोफोरा कुकुर्बिटारम हे आहे. या रोगाची बुरशी साधारणपणे झाडाच्या वरच्या भागातील फुले, पाने, नवीन फांद्या आणि फळांना संक्रमित करते. सुरुवातीच्या अवस्थेत, पानावर पाण्याने भिजलेले भाग विकसित होतात. प्रभावित फांदी सुकते आणि लटकते आणि अधिक संसर्गामध्ये फळे ही तपकिरी ते काळ्या रंगाची होतात आणि संक्रमित भागावर बुरशीचा थर दिसून येतो.
जैविक व्यवस्थापन – कॉम्बैट (ट्रायकोडर्मा विरिडी 500 ग्रॅम किंवा मोनास कर्ब (स्यूडोमोनास फ्लोरोसेंस 1% डब्ल्यूपी) 500 ग्रॅम प्रती एकर या दराने वापर करावा.
Shareमिरची पिकामध्ये फ्यूजेरियम विल्टची लक्षणे आणि प्रतिबंधात्मक उपाय
मिरची पिकामध्ये फ्यूजेरियम विल्ट हा एक सामान्य रोग आहे. या प्रकारचे बियाणे हे मातीजन्य रोग आहे, प्रभावित झाडे अचानक कोमेजून जातात आणि हळूहळू सुकतात. अशी झाडे हाताने ओढल्यावर सहज उपटतात. फ्यूजेरियम विल्टमुळे रोगट झाडांची मुळे आतून तपकिरी व काळी पडतात. रोगग्रस्त झाडे कापली असता ऊती काळी दिसतात. झाडांची पाने कोमेजून खाली पडतात. हा रोग हवा व जमिनीतील अति आर्द्रता व उष्णतेमुळे व सिंचनाद्वारे ओलावा उपलब्ध न झाल्याने वाढतो.
जैविक व्यवस्थापन –
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कॉम्बैट (ट्रायकोडर्मा विरिडी 500 ग्रॅम किंवा मोनास कर्ब (स्यूडोमोनास फ्लोरोसेंस 1% डब्ल्यूपी) 500 ग्रॅम प्रती एकर या दराने वापर करावा.
उत्पादन संदर्भ- तमिळनाडू कृषी विद्यापीठानुसार –
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2 किलो कॉम्बैट (ट्राइकोडर्मा विरिडी) फॉर्म्युलेशनला 50 किलो शेणखतामध्ये चांगले मिसळा त्यानंतर त्यावर पाणी शिंपडा आणि एका पातळ पॉलिथीन शीटने झाकून ठेवा. 15 दिवसांनंतर जेव्हा ढेरवरती माय सेलियाची वाढ दिसून आली की, त्या मिश्रणाचे एक एकर या क्षेत्रामध्ये वापर करावा.