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या किडीचे अप्सरा (लहान मुले) आणि प्रौढ झाडाची फळे शोषतात आणि तिचा विकास थांबवतात हे कीटक बाल्याअवस्थेत आणि प्रौढ अवस्थेत दोन्ही कापूस पिकाचे मोठ्या प्रमाणात नुकसान करतात.
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या कीटकातून उत्सर्जित होणारा “मधुरस” काळ्या बुरशीच्या वाढीस मदत करतो. तीव्र बाधा झाल्यास संपूर्ण कापसाचे पीक काळे पडते व पाने जळलेली दिसतात.
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कधीकधी पीक पूर्ण विकसित झाल्यानंतरही या किडीचा प्रादुर्भाव झाल्याने कापूस पिकाची पाने कोरडे पडतात व खाली पडतात. विषाणूजन्य पर्णासंबंधी रोगाचा प्रसार होण्यासही या किडीचा महत्त्वाचा वाटा आहे.
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रासायनिक प्रबंधन: या कीटकांच्या नियंत्रणासाठी डायफैनथीयुरॉन 50% डब्ल्यूपी 250 ग्रॅम / एकर किंवा फ्लोनिकामिड 50% डब्ल्यूजी 60 मिली / एकर किंवा एसिटामिप्रीड 20% एसपी 100 ग्रॅम / एकर किंवा पायरीप्रोक्सीफैन 10% + बॉयफैनथ्रिन 10% ईसी 250 मिली / एकर दराने फवारणी करावी.
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जैविक व्यवस्थापन: या किडीच्या नियंत्रणासाठी बवेरिया बेसियाना 500 ग्रॅम प्रति एकर फवारणी करावी.
मिट्टी में ऑर्गेनिक कार्बन का क्या होता है महत्व?
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ऑर्गेनिक कार्बन मिट्टी में ह्यूमस के निर्माण में सहायता करता है। इससे मिट्टी के स्वास्थ्य में सुधार होता है और उर्वरता को बनाए रखता है।
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मिट्टी में इसकी अधिकता होने से मिट्टी की भौतिक और रासायनिक गुणवत्ता बढ़ जाती है। मिट्टी की भौतिक गुणवत्ता जैसे मिट्टी की संरचना, जल धारण क्षमता, आदि को कार्बनिक कार्बन द्वारा बढ़ाया जाता है।
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इसके अतिरिक्त पोषक तत्वों की उपलब्धता, स्थानांतरण एवं रूपांतरण और सूक्ष्मजीवी पदार्थों व जीवों की वृद्धि के लिए भी जैविक कार्बन बहुत उपयोगी होता है।
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यह पोषक तत्वों की लिंचिंग (भूमि में नीचे जाना) को भी रोकता है।
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जैविक खेती में ह्यूमिक एसिड होता है बेहद महत्वपूर्ण
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ह्यूमिक एसिड खदान से उत्पन्न एक बहुपयोगी खनिज है। इसे सामान्य भाषा में मिट्टी का कंडीशनर भी कहा जा सकता है।
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यह बंजर भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाता है तथा मिट्टी की संरचना को सुधार कर एक नया जीवनदान देता है।
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इसका सबसे महत्वपूर्ण कार्य मिट्टी को भुरभुरा बनाना है जिससे जड़ों का विकास अधिक हो सके।
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ये प्रकाश संलेषण की क्रिया को तेज करता है जिससे पौधे में हरापन आता है और शाखाओं में वृद्धि होती है।
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यह पौधों की तृतीयक जडों का विकास करता है जिससे की मिट्टी से पोषक तत्वों का अवशोषण अधिक होता है।
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पौधों की चयापचयी क्रियाओं में वृद्धि कर मिट्टी की उर्वरा शक्ति को भी यह बढाता है।
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पौधों में फलों और फूलों की वृद्धि कर फसल की उपज को बढ़ाने में भी यह सहायक होता है।
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यह बीज की अंकुरण क्षमता बढाता है तथा पौधों को प्रतिकूल वातावरण से भी बचाता है।
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मिलेगी प्याज की उपज बेमिसाल, पंचरत्न के पुष्कर बीज हैं कमाल
प्याज की पावरफुल उपज पाने के लिए आप पंचरत्न के पुष्कर बीज का चुनाव कर सकते हैं। आइये जानते हैं इस बीज की क्या हैं खूबियां?
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खरीफ और पछेती खरीफ किस्म
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2.5 से 3 किलोग्राम बीज दर
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गहरे लाल अंडाकार कंद
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80 से 100 ग्राम वज़नदार कंद
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80 से 90 दिन की फसल अवधि
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2 महीने की भंडारण क्षमता
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मिर्च की 20 से 30 दिनों की फसल अवस्था में ऐसे करें उर्वरकों का प्रबंधन
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जिस प्रकार मिर्च की रोपाई के समय उर्वरक प्रबंधन आवश्यक होता है ठीक उसी प्रकार रोपाई के 20 से 30 दिनों के बाद भी उर्वरक प्रबंधन करना बहुत आवश्यक होता है।
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यह प्रबंधन मिर्च की फसल की अच्छी बढ़वार एवं रोगों के विरुद्ध पौधों में प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए किया जाता है।
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रोपाई के बाद इस समय में ही पौधे की जड़ ज़मीन में फैलती है और इसीलिए इस समय जड़ों की अच्छी बढ़वार सुनिश्चित करने के लिए उर्वरक प्रबंधन बहुत आवश्यक होता है।
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इस समय उर्वरक प्रबंधन के लिए यूरिया @ 45 किलो/एकड़ DAP @ 50 किलो/एकड़, मैग्नेशियम सल्फेट @15 किलो/एकड़, सल्फर@ 5 किलो/एकड़, जिंक सल्फेट @ 5 किलो/एकड़ की दर से खेत में भुरकाव करें।
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इस बात का भी ध्यान रखें की उर्वरकों के उपयोग के समय खेत में नमी जरूर हो।
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पर्ण कुंचन रोग से मिर्च की फसल को होगा नुकसान, जानें बचाव के उपाय
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मिर्च के पौधों में पर्ण कुंचन रोग के कारण पत्तियां ऊपर और नीचे की ओर मुड़ने लगती हैं। पत्ती के किनारे हल्के हरे से लेकर पीले रंग के हो जाते हैं, जो आखिर में शिराओं तक फैल जाते हैं। इसके कारण नोड्स और इंटरनोड्स आकार में छोटे हो जाते हैं। संक्रमित पौधे झाड़ीदार दिखाई देते हैं, विकास गंभीर रूप से अवरुद्ध हो जाता है, पीलेपन की समस्या भी दिखाई देती है और संक्रमित पौधों के फल भी छोटे रह जाते हैं।
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इस रोग का फैलाव सफेद मक्खी की वजह से होता है। यह रोग तापमान और सापेक्ष आर्द्रता में तेजी के साथ बढ़ता है। इसके विषाणु मुख्य रूप से खरपतवारों पर रहते हैं। गर्म और शुष्क मौसम इस रोग-प्रसार का पक्षधर है।
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इसके नियंत्रण हेतु नायलॉन-नेट कवर (50 मेश) के नीचे नर्सरी उगाएं, खेत से जल्दी संक्रमित पौधों और खरपतवारों को हटा लें, मक्का ज्वार या बाजरा के साथ फसल की दो पंक्तियाँ रोग-प्रसार को कम करती हैं।
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इसके रासायनिक नियंत्रण के लिए आप फिपनोवा (फिप्रोनिल 5% SC) 320-400 मिली/एकड़ का उपयोग करें।
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कपास की गुलाबी सुंडी है खतरनाक, कर देगी फसल को बर्बाद
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कपास की फसल में गुलाबी सुंडी के कारण कलियों का खुलना बंद हो जाता है, फल झड़ने लगते हैं, लिंट खराब हो जाते हैं और बीज नष्ट हो जाते हैं। ये सुंडी कपास में पाया जाने वाला विश्वव्यापी कीट है और दुनिया के कुछ क्षेत्रों में तो यह कपास का प्रमुख कीट है।
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गुलाबी सुंडी के अंडे फूल आने के समय कपास के डोडे पर या उसके आस पास जमा हो जाते हैं।
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युवा लार्वा 3-5 दिनों के बाद निकलते हैं, उभरने के तुरंत बाद कपास के डोडे में प्रवेश करते हैं जहां वे घेटे के भीतर आंतरिक रूप से भोजन करते हैं।
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लार्वा आमतौर पर चार स्तर से गुजरते हैं। प्यूपेशन जमीन में होता है, सतह से लगभग 50 मिमी नीचे और वयस्क लगभग 9 दिनों के बाद निकलते हैं। वयस्क निशाचर होते हैं और मादाएं उभरने के एक या दो दिन बाद अंडे देना शुरू कर देती हैं, आमतौर पर मादा प्रत्येक 200-400 अंडे देती हैं।
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इसके नियंत्रण के लिए प्रोफेनोवा सुपर (साइपरमैथिन 4% + प्रोफेनोफॉस 40% EC) @400-600 लीटर/एकर, डैनिटोल (फेनप्रोपेथ्रिन 10% EC) 300-400 लीटर/एकर।
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मिर्च की फसल में ना होने दें मकड़ी का प्रकोप, ऐसे करें बचाव
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मकड़ी छोटे एवं लाल रंग के कीट होते हैं जो फसलों के कोमल भागों जैसे पत्तियां, कलिया, फूल एवं टहनियों पर भारी मात्रा में पाए जाते हैं।
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जिन पौधों पर मकड़ी का प्रकोप होता है उनपर जाले दिखाई देते हैं। ये पौधे के कोमल भागों का रस चूसकर उनको कमज़ोर कर देते हैं एवं अंत में पौधा मर जाता है।
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मिर्च की फसल में मकड़ी किट के नियंत्रण के लिए निम्र उत्पादों का उपयोग किया जाता है।
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ओमाइट (प्रोपरगाइट 57% EC) @ 400 मिली/एकड़ या ओबेरोन (स्पिरोमिसिफेन 22.9% SC) @ 200 मिली/एकड़ या अबासीन (एबामेक्टिन 1.8% EC) @ 150 मिली/एकड़ का छिड़काव करें।
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जैविक उपचार के रूप में कालीचक्र (मेथारिज़ियम एनिसपोली) 1 किग्रा/एकड़ की दर से उपयोग करें।
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स्प्रेडर के उपयोग से कृषि दवाओं का बढ़ता है असर और मिलते हैं कई फायदे
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स्प्रेडर का उपयोग करने से किसान जो भी दवाई फसलों में डालते हैं वह लंबे समय तक पौधों में ठहरती है।
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इससे दवाई का असर ज्यादा दिनों तक फसलों में देखने को मिलता है। यह पौधों के हर हिस्से में दवा को अच्छे से फैलाता है।
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इसके अलावा कई बार ओस की बूंद गिरने से या बारिश आ जाने के कारण जो भी दवाई का उपयोग हम फसलों में करते हैं वह धुल जाती है अगर हमारे द्वारा स्प्रेडर का उपयोग दवाओं के साथ करेंगे तो दवाई को पौधों से धुलने से बचाया जा सकता हैं।
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स्प्रेडर की कीमत बहुत ज्यादा नहीं होती है और यह बाकी के महंगे दवाओं की उपयोग क्षमता को भी बढ़ता है इसलिए किसानों को इसे जरूर इस्तेमाल करना चाहिए।
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आपके क्षेत्र के नजदीकी ग्रामोफ़ोन दुकान पर उपलब्ध सिलिकोमैक्स गोल्ड का उपयोग स्प्रेडर के रूप में कर सकते हैं।
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धान में बढ़ेगा तना छेदक का प्रकोप, जानें बचाव के सटीक उपाय
धान की फसल में तना छेदक का प्रकोप देखा जा सकता है। इससे बचाव के लिए आप कई तरीके व दवाइयों का इस्तेमाल कर सकते हैं। आइये बारी बारी से जानते हैं इन सभी तरीकों के बारे में।
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जैविक नियंत्रण: शिकारियों, परजीवियों और रोगजनकों जैसे प्राकृतिक शत्रुओं का उपयोग करके तना छेदक की संकिया को नियंत्रित किया जा सकता है।
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खेती के तरीके: समय पर रोपण, उचित सिंचाई और मिट्टी की उर्वरता प्रबंधन जैसे उचित क्षेत्र प्रबंधन प्रथाओं से तना छेदक के संक्रमण को कम किया जा सकता है।
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इंटरक्रॉपिंग: धान की फसल के साथ-साथ अन्य फसलें लगाने से तना छेदक कीट की संख्या को कम किया जा सकता है।
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वानस्पतिक कीटनाशकों का उपयोग: नीम, तुलसी और लहसुन जैसे कुछ पौधों में तना छेदक के विकर्षक गुण पाए गए हैं और इन्हें वनस्पति कीटनाशकों के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।
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रासायनिक नियंत्रण के उपाय: उपयोग करें प्रोफेनोवा सुपर (साइपरमैथिन 4% EC + प्रोफेनोफॉस 40% EC) @ 400-600 मिली/एकड़ या फिपनोवा (फिप्रोनिल 5% SC) 400-600 मिली/एकड़ की दर से।
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