भिंडी की भरपूर उपज के लिए ऐसे करें खेत को तैयार और पोषण प्रबंधन!

Watermelon and Muskmelon field preparation
  • भिंडी की फसल के लिए भुरभुरी, अच्छी जल निकासी वाली रेतीली दोमट मिट्टी जिसका पीएच रेंज 6.0-6.8 तक हो सबसे उपयुक्त होती है। 

  • कार्बनिक पदार्थों से भरपूर भूमि में बीज का अंकुरण एवं जड़ों का विकास अच्छा होता है। 

  • पिछली फसल की कटाई के बाद एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें। 

  • इसके बाद, गोबर की खाद 8 से 10 टन + स्पीड कम्पोस्ट 4 किग्रा + कॉम्बैट (ट्राईकोडर्मा विरिडी 1.0 % डब्ल्यूपी) @ 2 किलोग्राम, प्रति एकड़ के हिसाब से खेत में समान रूप से भुरकाव करें।

  • इसके बाद 2-3 जुताई हैरो की सहायता से करें। अगर मिट्टी में नमी कम हो तो पहले पलेवा करें, फिर खेत की तैयारी करें और आखिर में पाटा चलाकर खेत समतल बना लें।

  • खेत तैयार होने के बाद, बीज की बुवाई सिफारिश की गयी दूरी पर ही करें।

  • पौध से पौध एवं कतार से कतार की दूरी 30 x 30 सेमी रखें। एक एकड़ क्षेत्र के लिए 1.5-2.2 किग्रा बीज, पर्याप्त होता है।

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प्याज की 40-45 दिन की फसल अवस्था में कंद निर्माण के लिए पोषक तत्व प्रबंधन!

Nutrient management required for bulb formation at the 40-45 day old stage of onion crop

प्याज की फसल में रोपाई के 40-45 दिन बाद, कंद निर्माण होना प्रारम्भ हो जाता है। इस अवस्था में, यूरिया 30 किग्रा + कैल्शियम नाइट्रेट 10 किग्रा + मैगनेशियम सल्फेट 10 किग्रा को आपस में मिलाकर एक एकड़ क्षेत्र में, सामान रूप से भुरकाव कर हल्की सिंचाई करें।

यूरिया: यह नाइट्रोज़न की पूर्ति का सबसे बड़ा स्रोत है। इसके उपयोग से, पत्तियों में पीलापन एवं सूखने की समस्या नहीं आती है। यूरिया प्रकाश संश्लेषण की क्रिया को तेज़ करता है।

कैल्शियम नाइट्रेट: इसमें 15.5% नाइट्रोजन और 18.5% कैल्शियम होता है। कैल्शियम के अलावा, इससे फसलों को नाइट्रोजन की भी पूर्ती होती है। पौधों की वृद्धि के लिए कैल्शियम एक महत्वपूर्ण द्वितीयक पोषक तत्व है। कैल्शियम नाइट्रेट फसलों के लिए कैल्शियम का एक उत्कृष्ट स्रोत है। यह फसलों में उपज की गुणवत्ता और लंबी शेल्फ लाइफ को बढ़ाता है। यह पौधों में कंदो के विकास में मदद करता है। 

मैग्नीशियम सल्फेट: इसमें 9.5% मैग्नीशियम और 12% सल्फर होता है। मैग्नीशियम के साथ यह फसलों को सल्फर भी उपलब्ध करवाता है जिससे फसल की गुणवत्ता के साथ-साथ उत्पादन भी बेहतर मिलता है। यह एंजाइम एवं कार्बोहाइड्रेट के परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। पौधों में क्लोरोफिल के संश्लेषण में मदद करता है और फास्फोरस ग्रहण और अवशोषण में भी सुधार करता है।

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मिर्च की फसल में काले थ्रिप्स के क्षति के लक्षण एवं नियंत्रण के उपाय

Black thrips damage symptoms and control measures in chilli crop

क्षति के लक्षण: मिर्च की फसल में होने वाला काला थ्रिप्स एक बहुत ही घातक कीट है। यह कीट पहले पत्ती की निचली सतह से रस चूसते हैं और धीरे धीरे टहनी, फूल एवं फल पर भी हमला करते हैं। फसल की फूल अवस्था में ये फूलों को प्रभावित करके फलों के विकास को रोक देते हैं। फूलों को नुकसान पहुंचाने के कारण इसे “फ्लावर थ्रिप्स” भी कहा जाता है। गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त पत्तियां पीली होकर गिर जाती हैं।

नियंत्रण के उपाय: इस  कीट के नियंत्रण के लिए, लार्गो (स्पाइनेटोरम 11.7 % एससी) @ 180-200 मिली + नीमगोल्ड (एज़ाडिरेक्टिन 3000 पीपीएम) @ 800 मिली + नोवामैक्स @ 300 मिली + सिलिकोमैक्स गोल्ड @ 50 मिली, प्रति एकड़, 150 से 200 लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें

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भिंडी में सफ़ेद मक्खी एवं जैसिड के लक्षण एवं नियंत्रण के उपाय

Symptoms and control measures of white fly and jassid in okra crop

जैसिड: इसके प्रकोप से कोमल पत्तियाँ पीली हो जाती हैं, एवं पत्तियों के किनारे नीचे की ओर मुड़कर लाल होने लगते हैं। गंभीर संक्रमण के मामले में पत्तियों के किनारे कांसे की तरह हो जाते हैं, जिसे  “हॉपर बर्न” कहा जाता है। इससे पत्ती के किनारे टूट जाते हैं और कुचले जाने पर टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं। इस कारण फसल विकास धीमी हो जाती है।

सफेद मक्खी: पत्तियों पर क्लोरोटिक धब्बे बनाते हैं, जो बाद में आपस में मिलकर पत्ती के ऊतकों पर पीलेपन का निर्माण करते हैं। ये कीट मधुरस (हनीड्यू) का स्राव करते हैं, जिससे काली फफूंदी का विकास होता है। साथ ही पीला शिरा मोज़ेक वायरस के रोगवाहक भी है। यह भिंडी का सबसे विनाशकारी रोग है। सफ़ेद मक्खी के गंभीर संक्रमण के कारण समय से पहले पत्ते झड़ जाते हैं। 

नियंत्रण के उपाय: इन कीटों के नियंत्रण एवं अधिक फूल धारण के लिए, थियानोवा 25 (थियामेथोक्सम 25% डब्ल्यूजी) @ 40 ग्राम या पेजर (डाइफेंथियूरॉन 50 % डब्ल्यूपी) @ 240 ग्राम + न्यूट्रीफुल मैक्स  @ 250 मिली, प्रति एकड़ 150 से 200 लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें।

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गेहूँ की जबरदस्त उपज पाने के लिए विभिन्न अवस्थाओं में ऐसे करें सिंचाई प्रबंधन

Irrigate in different stages for bumper yield of wheat!

गेहूँ की उन्नत एव हाई क्वालिटी किस्मों की खेती में 25 से 30 सेमी जल की आवश्यकता होती है। इन किस्मों में जल उपयोग दृष्टि से तीन क्रांतिक अवस्था होती हैं – 

  • कल्ले निकलने की अवस्था (बुवाई के 30 दिन बाद)

  • पुष्पावस्था (बुवाई के 50 से 55 दिन बाद) 

  • दूधिया अवस्था (बुवाई के 95 दिन की अवस्था) 

  • इन अवस्थाओं में सिंचाई करने से निश्चित ही उपज में वृद्धि होती है। 

  • प्रत्येक सिंचाई में 8 सेमी जल देना आवश्यक है।

बौनी गेहूँ की किस्मों को प्रारंभ से ही अधिक पानी की आवश्यकता होती है, इससे जड़ एवं कल्लो का विकास ज्यादा होता है, जिससे पौधो में बालिया ज्यादा आती है। परिणामस्वरुप अधिक उपज मिलती है। इन किस्मों को 40 से 50 सेमी जल की आवश्यकता होती है। प्रति सिंचाई में 6 से 7 सेमी जल देना आवश्यक है। 

  • पहली सिंचाई बुवाई के समय

  • दूसरी सिंचाई बुवाई के 21-25 दिन बाद (जड़ बनने की अवस्था में)

  • तीसरी सिंचाई बुवाई के 41-45 दिन बाद (कल्ले निकलने की अवस्था में)

  • चौथी सिंचाई बुवाई के 61-65 दिन बाद (पुष्पन अवस्था में)

  • पांचवी सिंचाई बुवाई के 81-85 दिन बाद (दाना भरने की अवस्था में)

  • इसमें से सबसे महत्वपूर्ण चरण है – जड़ बनने की अवस्था एवं पुष्पन अवस्था

पछेती किस्म में हर 20 दिन की अंतराल में सिंचाई करते रहना चाहिए, पुष्पन अवस्था से दाना भरने की अवस्था में पानी का अवश्य ही ध्यान  रखें, इस समय तापमान अधिक होने के कारण, पानी जल्दी सूख जाता है और दाने में झुर्रिया आ जाती है। इसलिए देरी से बुवाई किये गए गेहूँ में समय समय पर पानी देना जरुरी है। 

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गेहूँ की उपज में 25 से 35% तक का नुकसान कर देंगे चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार

Broad leaf weeds will cause 25 to 35% loss in wheat yield
  • गेहूँ की फसल में खरपतवार एक बड़ी समस्या है। खरपतवारों के कारण फसल उत्पादन में 25 से 35% तक की कमी देखी गई है। जो पोषक तत्व फसलों को दिए जाते हैं, वह पोषक तत्व खरपतवार के द्वारा अवशोषित कर लिए जाते हैं। जिससे मुख्य फसल कमजोर हो जाती है।

  • गेहूँ में मुख्यतः दो तरह के खरपतवारों की समस्या होती है जैसे सकरी पत्ती वाले खरपतवार मोथा, कांस, जंगली जई, गेहूंसा (गेहूं का मामा) आदि तथा चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार जैसे बथुआ, सेंजी, कासनी, जंगली पालक,  कृष्णनील, हिरनखुरी आदि। 

  • बुवाई के 30 से 40 दिन के अंदर जब खरपतवार 2 से 5 पत्तों की अवस्था में होते हैं तब खरपतवार नाशक का छिड़काव करें। छिड़काव के समय खेत में पर्याप्त नमी होनी चाहिए। छिड़काव में फ्लैट फैन या फ्लड जेट नोजल का इस्तेमाल करें। 10 से 12 टंकी प्रति एकड़ के हिसाब से छिड़काव करें।  

  • चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार नियंत्रण के लिए, नोवामाईन 58 (2,4-डी डाइमिथाइल एमाइन साल्ट 58% एसएल) @ 300-500 मिली या कॉनवो (मेटसल्फ्युरोन-मिथाइल 20 % डब्ल्यूपी) @ 8 ग्राम, प्रति एकड़ 200 लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें। 

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आ गया नोवामाइन 38, जो बचाएगा फसल को खरपतवार से!

Novamine 38
  • नोवामाइन 38 में 2,4-डी इथाइल एस्टर 38 ईसी होता है।

  • यह एक चयनात्मक और उगने / उभरने के बाद उपयोग आने वाला शाकनाशी है।

  • जब खरपतवार 2 से 4 पत्ती की अवस्था में हो तब इसकी छिड़काव का सही समय होता है। 

  • इसका उपयोग कई फसलों में चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों के नियंत्रण हेतु किया जाता है।

इसकी मात्रा फसल अनुसार इस प्रकार है

  • गेहूँ – 500-800 मिली

  • मक्का – 1000 मिली

  • रोपण धान – 1000 मिली

  • ज्वार – 1176 मिली

  • गन्ना 1400 से 2100 मिली

  • जलीय खरपतवार – 3000 मिली प्रति एकड़

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गहू पिकावरील जळलेल्या पानांवरील डागांचे रोग कसे नियंत्रित करावे

How to control leaf blight disease in Wheat
  • यह रोग मुख्यतः बाईपोलेरिस सोरोकिनियाना नामक जीवाणु द्वारा होता है। इस रोग के लक्षण पौधे के सभी भागों में पाए जाते हैं तथा पत्तियों पर इसका प्रभाव बहुत अधिक देखने को मिलता है।

  • प्रारम्भ में इस रोग के लक्षण भूरे रंग के नाव के आकार के छोटे धब्बों के रूप में दिखाई देते हैं, जो कि बड़े होकर पत्तियों के सम्पूर्ण भाग पर फ़ैल जाते हैं।

  • इसके कारण पौधे के ऊतक मर जाते हैं और हरा रंग नष्ट होने लगता है, साथ ही पौधा झुलसा हुआ दिखाई देता है।

  • इससे पौधे में प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया बुरी तरह प्रभावित होती है, प्रभावित पौधे के बीजों में अंकुरण क्षमता कम होती है l इस रोग के लिए 25 डिग्री सेल्सियस तापमान और उच्च सापेक्ष आर्द्रता अनुकूल रहती है।

  • रासायनिक उपचार के लिए थायोफिनेट मिथाइल 70% W/P  @ 300 ग्राम /एकड़ या कार्बेन्डाजिम 12% + मैनकोज़ेब 63%  WP  @ 300  ग्राम /एकड़  या हेक्साकोनाज़ोल 5 % SC  @ 400  मिली, प्रति एकड़ या  टेबुकोनाज़ोल 10% + सल्फर 65% WG  @ 500  ग्राम / एकड़ या क्लोरोथालोनिल 75% WP  @  400 ग्राम /एकड़ या कासुगामायसिन 5% + कॉपर आक्सीक्लोराइड 45% WP @ 300 ग्राम/एकड़ की दर से छिडकाव करें।

  • जैविक उपचार के रूप में ट्रायकोडर्मा विरिडी @ 500 ग्राम/एकड़ या स्यूडोमोनास फ्लोरोसेंस @ 250 ग्राम/एकड़ की दर छिड़काव करें।

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भेंडीचा पित्त शिरा मोज़ेक विषाणु रोग

Yellow vein mosaic virus disease in Okra
  • ही भिंडी पिकातील मोठी समस्या आहे, हा रोग पांढरी माशी नावाच्या किडीमुळे होतो.

  • ही समस्या भेंडी पिकाच्या सर्व टप्प्यांत दिसून येते ज्याचा पिकाच्या वाढीवर आणि उत्पादनावर परिणाम होतो.

  • या रोगात पानांच्या शिरा पिवळ्या दिसू लागतात व नंतर पाने पिवळी होऊन वळू लागतात.

  • प्रभावित फळे फिकट पिवळी, विकृत व कडक होतात.

  • व्यवस्थापन :-

  • व्हायरस पासून प्रभावित झाडे आणि वनस्पतींचे भाग उपटून नष्ट करावेत.

  • काही जाती जसे मोना, वीनस प्लस, परभणी क्रांति, अर्का अनामिका , इत्यादी व्हायरस सहनशील आहेत.

  • झाडाच्या वाढीच्या अवस्थेत खतांचा अतिवापर करू नका.

  • शक्यतोपर्यंत भेंडी पिकाची पेरणी वेळेपूर्वी करा. 

  • पिकामध्ये वापरण्यात येणारी सर्व उपकरणे स्वच्छ ठेवावीत जेणेकरून या उपकरणांद्वारे हा रोग इतर पिकांपर्यंत पोहोचू नये.

  • या रोगाचा प्रादुर्भाव झालेल्या पिकांसोबत भेंडीची पेरणी करू नये.

  • यांत्रिक नियंत्रणासाठी, पांढऱ्या माशीच्या नियंत्रणासाठी एकरी 10 चिकट सापळे वापरता येतात.

  • रासायनिक नियंत्रणासाठी डाइफेंथियूरॉन 50 % डब्ल्यूपी 250 ग्रॅम एसिटामिप्रिड 20% एसपी 100 ग्रॅम इमिडाइक्लोप्रिड 17.8% एसएल 80 मिली /एकर या दराने फवारणी करावी.

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हरभरा पिकामध्ये दवचे नियंत्रण

There may be damage due to frost in gram crop, control in this way
  • सामान्यतः हिवाळ्याच्या लांब रात्री थंड असतात आणि काही वेळा तापमान गोठवण्याच्या बिंदूपर्यंत किंवा त्याहूनही कमी होते. अशा स्थितीत, पाण्याची वाफ द्रव स्वरूपात न बदलता थेट सूक्ष्म हिमकणांमध्ये रूपांतरित होते, त्याला दंव म्हणतात, दंव पिकांसाठी आणि वनस्पतींसाठी अत्यंत हानिकारक आहे.

  • दवच्या प्रभावामुळे हरभरा पिकाची पाने व फुले कुजलेली दिसतात व नंतर गळून पडतात. अगदी कमी पिकलेली फळेही सुकतात. त्यात सुरकुत्या पडतात आणि कळ्या पडतात. बीन्समध्ये दाणेही तयार होत नाहीत.

  • आपल्या पिकाचे दंव पासून संरक्षण करण्यासाठी आपण आपल्या शेताभोवती धूर निर्माण करावा, ज्यामुळे तापमान संतुलित राहते आणि दंवमुळे होणारे नुकसान टाळता येते.

  • ज्या दिवशी दंव पडण्याची शक्यता असेल त्या दिवशी सल्फरच्या ०.1 टक्के द्रावणाची फवारणी करावी.

  • द्रावणाची फवारणी झाडांवर चांगली पडेल याची खात्री करा. फवारणीचा प्रभाव दोन आठवडे टिकतो या कालावधीनंतरही थंडीची लाट व तुषार येण्याची शक्यता कायम राहिल्यास सल्फरची फवारणी 15  ते 20  दिवसांच्या अंतराने पुन्हा करावी.

  • जैविक उपचार म्हणून स्यूडोमोनास फ्लोरोसेंस 500 ग्रॅम/एकर या दराने फवारणी करावी. 

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