धान की नर्सरी में बुवाई से पहले बीज उपचार से मिलेंगे कई फायदे

Benefits of seed treatment before sowing in paddy nursery

बीज उपचार एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें फसल को बीमारियों और कीटों से बचाव के लिए रसायन, जैव रसायन या ताप से बीजों को उपचारित किया जाता है। बीज उपचार से बीजों में उपस्थित आन्तरिक या बाहरी रूप से जुड़े रोगजनकों (फफूँद, बैक्टीरिया आदि) की रोकथाम होती है। बीजों की ऊपरी तथा अंदर की परतों में सूक्ष्म फफूँद रहती है जो बीज को ख़राब कर देता है, साथ ही साथ बीज की अंकुरण क्षमता को भी प्रभावित करता है। बीज उपचार करने से बीजों का अंकुरण अच्छा होता है, तथा फसल की बीमारियों के प्रसार को रोकता है। मिट्टी जनित रोग एवं कीटों को नियंत्रित करता है, जिससे  बीजों को सड़ने और अंकुरों के झुलसने से बचाया जा सकता है।

धान के बीज को बोने से पूर्व बीजोपचार कर लेना चाहिए। इसके लिए, कॉम्बैट (ट्राइकोडर्मा विरडी) 8 ग्राम/किलो बीज या धानुस्टिन (कार्बेन्डाजिम 50% WP) 2.5 ग्राम/किलो बीज या विटावैक्स पावर (कार्बोक्सिन 37.5% + थिरम 37.5% WS)- 2.5 ग्राम/किलो बीज से उपचारित करें। जीवाणु झुलसा रोग की समस्या आने पर, 4 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लीन या 40 ग्राम प्लान्टोमाइसीन को 25 किग्रा बीज के साथ मिलाकर रात भर के लिए भिगों दें, तथा अतिरिक्त पानी निकाल कर बीजों की बुवाई करें।

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सही खेत की तैयारी व प्रबंधन से तैयार होगी धान की बेस्ट नर्सरी

Preparation and management of field for paddy nursery

धान की नर्सरी तैयार करने के लिए उचित जल-निकास एवं उच्च पोषक तत्व युक्त दोमट मिट्टी उपयुक्त होती है। साथ हीं इसमें सिंचाई की उचित व्यवस्था भी होनी चाहिए।

धान की नर्सरी तैयार करते समय, उचित मात्रा में खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग करना बहुत जरूरी है। सही मात्रा में उर्वरकों का प्रयोग नहीं करने से धान के पौधों में पोषक तत्वों की कमी हो जाती है, और पौधे का विकास, ठीक से नहीं हो पाता है।

नर्सरी तैयार करते समय सबसे पहले जुताई करके मिट्टी को भुरभुरा बना लें। इसके बाद 1.25 मीटर चौड़ी एवं 8 मीटर लंबी क्यारियां तैयार करें।

पौधे के अच्छे विकास के लिए धान नर्सरी में प्रति 100 वर्ग मीटर के हिसाब से 2-3 किलोग्राम यूरिया, 3 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट, 1 किलोग्राम पोटाश, 10 किलोग्राम गोबर की खाद और 1 किलो ट्राई-कोट मैक्स का उपयोग करना चाहिए। पौधों के अच्छे अंकुरण के लिए पानी की बहुत ज्यादा जरूरत होती है साथ हीं क्यारियों में पर्याप्त नमी भी रखनी चाहिए।

धान के बीज को बोने से पूर्व बीजोपचार जरूर कर लेना चाहिए। इसके लिए, कॉम्बैट (ट्राइकोडर्मा विरडी) 8 ग्राम/किलो बीज या धानुस्टिन (कार्बेन्डाजिम 50% WP) 2.5 ग्राम/किलो बीज या विटावैक्स पावर (कार्बोक्सिन 37.5% + थिरम 37.5% WS)- 2.5 ग्राम/किलो बीज से उपचारित करें।

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ट्राइकोडर्मा अपनाएं और फसलों में मिट्टी के माध्यम से होने वाले रोगों से सुरक्षा पाएं

Adopt Trichoderma for soil-borne disease management

ट्राइकोडर्मा दरअसल एक जैविक फफूंदनाशी/कवकनाशी है, जो कई प्रकार के रोगजनकों को मारता है। इससे फसलों में लगने वाले जड़ सड़न, तना सड़न, उकठा और आर्द्र गलन जैसे रोगों से सुरक्षा होती है। ट्राइकोडर्मा सभी प्रकार की फसलों में उपयोग किया जा सकता है। ट्राइकोडर्मा का उपयोग बीज उपचार, मिट्टी उपचार, जड़ों का उपचार और ड्रेंचिंग के लिए किया जा सकता है।

बीज उपचार के लिए, 5-10 ग्राम ट्राइकोडर्मा प्रति किलो बीज की दर से उपयोग किया जाता है। यह बीज उपचार बुवाई से पहले किया जाता है।

जड़ों के उपचार के लिए, 10 किलो अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद तथा 100 लीटर पानी मिला कर घोल तैयार करें और फिर इसमें 1 किलो ट्राइकोडर्मा पाउडर मिला कर मिश्रण तैयार कर लें। इस मिश्रण में, पौध की जड़ों को रोपाई से पहले, 10 मिनट के लिए डुबो कर रखें। कुछ इस तरह जड़ों को उपचारित किया जा सकता है।

वहीं इससे मिट्टी उपचार करने के लिए 2 किलो ट्राइकोडर्मा पाउडर प्रति एकड़ की दर से अच्छी सड़ी गोबर की खाद के साथ मिला कर खेत में मिलाया जाता है।

खड़ी फसल में इसका उपयोग करने के लिए एक लीटर पानी में 10 ग्राम ट्राइकोडर्मा पाउडर मिलाकर तना क्षेत्र के पास की मिट्टी में ड्रेंचिंग करें।

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पौधों के लिए नाइट्रोजन होता है महत्वपूर्ण, जानें इसके लाभ

Importance of Nitrogen for plants

नाइट्रोजन प्रोटीन का एक महत्वपूर्ण स्रोत है, यह पर्णहरित का महत्वपूर्ण भाग होता है जो प्रकाश संश्लेषण के लिए अतिआवश्यक होता है। नाइट्रोजन पौधे की वानस्पतिक वृद्धि को बढ़ाता है एवं गहरा हरा रंग प्रदान करता है। नाइट्रोजन पौधे की शुरूआती वृद्धि को बढ़ाता है। 

मिट्टी जिसमें जैविक कार्बन का स्तर कम होना या फिर हल्की गठन वाली रेतीली मिट्टी जिसमें अत्यधिक वर्षा या सिंचाई द्वारा अपक्षालन होना दरअसल नाइट्रोजन की कमी को दर्शाता है। अनाज वाली फसलों की सघन कृषि प्रणाली में भी इसकी कमी देखी जाती है।

पौधे में नाइट्रोजन की कमी के लक्षण पुरानी पत्तियों पर दिखाई देते हैं। नाइट्रोजन की कमी वाले पौधों की वृद्धि इसके कारण रुक जाती है, और पौधे आकार में पतले एवं छोटे दिखाई देते हैं। अनाज वाली फसलों में इसके कारण कल्ले बहुत कम हो जाते हैं। इससे पत्तियाँ नोक की तरफ से पीली पड़ने लगती हैं। यह प्रभाव पहले पुरानी पत्तियों पर दिखाई देते हैं, फिर बाद में नई पत्तियों पर भी दिखाई देते हैं।

नाइट्रोजन का प्रबंधन: 

नाइट्रोजन की मिट्टी में उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए मिट्टी की जांच करवाएं। जांच के आधार पर, सिफारिश की गई नाइट्रोजन को खाद एवं जैविक उर्वरकों की सहायता से बुआई के समय प्रयोग करें। खड़ी फसल में आवश्यकतानुसार यूरिया का भुरकाव करें।

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मक्का में सही पोषक तत्व प्रबंधन से मिलेगी बंपर उपज

Nutrient Management in Maize

मक्का मुख्य रूप से एक खरीफ सीजन की फसल है, लेकिन बाजार में इसकी बढ़ती मांग और सभी मौसम के अनुकूल उपलब्ध किस्मों के कारण अब यह तीनों ही सीजन में उगाई जाती है। मौसम, जलवायु और किस्म के अनुसार मक्का की फसल में पोषक तत्वों का प्रबंधन भिन्न-भिन्न होता है। इसके अलावा मिट्टी के जांच के आधार पर फसल में पोषक तत्व प्रबंधन किया जाना आवश्यक है।

मक्का में बुवाई से लगभग 10-15 दिन पहले खेत की तैयारी के समय 5 टन अच्छी तरह से सड़ी हुई गोबर की खाद प्रति एकड़ खेत में मिलाएं। खेत की तैयारी के समय – 50 किलोग्राम डीएपी, 50 किलोग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश, ग्रोमोर (सल्फर 90% WG) 3 किलोग्राम की मात्रा प्रति एकड़ की दर से खेत में डाल दें।

मक्का में अधिक उत्पादन के लिए जिंक एक महत्वपूर्ण पोषक तत्व माना जाट है जिसकी पूर्ति के लिए 3 – 4 किलोग्राम जिंक की मात्रा प्रति एकड़ के अनुसार इस्तेमाल करें। ध्यान रहे ! जिंक का प्रयोग किसी भी प्रकार के फास्फोरस युक्त उर्वरक के साथ न करें। यह फसल में जिंक की उपलब्धता को कम करता है।

वहीं मिट्टी में बोरॉन की कमी आने पर 500 ग्राम बोरॉन की मात्रा का इस्तेमाल प्रति एकड़ खेत के लिए काफी होता है। 

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कापूस पिकातील पोषण व त्याचे फायदे कसे व्यवस्थापित करावे

How to do nutrition management in cotton and know its benefits
  • कापूस पीक हे खरिपाचे मुख्य पीक आहे आणि हे पीक खूपच महाग पीक आहे, म्हणून चांगले उत्पादन मिळणे खूप महत्वाचे आहे, चांगल्या उत्पादनासाठी कापूस पिकामध्ये खत किंवा पोषण व्यवस्थापन करणे अत्यंत आवश्यक आहे.

  • कापूस पिकामधील पौष्टिक व्यवस्थापन पेरणीनंतर 40-45 दिवसांनी किंवा उगवणानंतर दुसऱ्यावाढीच्या टप्प्यात केले जाते, यासाठी खालील उत्पादने वापरली जातात

  • युरिया 40 किलो / एकर + एमओपी 30 किलो / एकर + मॅग्नेशियम सल्फेट 10 किलो / एकर दराने फवारणी करावी.

  • यूरिया: कापूस पिकामध्ये यूरिया हा नायट्रोजन पुरवठ्याचा सर्वात मोठा स्त्रोत आहे, त्याचा वापर केल्यामुळे पाने कोरडी होण्यासारखी समस्या उद्भवत नाही, युरिया प्रकाश संश्लेषणाच्या प्रक्रियेस वेगवान ठरते.

  • एमओपी (पोटॅश): कापसासाठी पोटॅश एक आवश्यक पोषक आहे, कापूस वनस्पतीमध्ये संश्लेषित केलेल्या शुगर्सला सूती रोपाच्या सर्व भागापर्यंत पोचविण्यासाठी पोटाश महत्त्वपूर्ण भूमिका बजावते.पोटॅश नैसर्गिक नायट्रोजनच्या कार्यक्षमतेस प्रोत्साहन देते.

  • मॅग्नेशियम सल्फेट: कापूस पिकामध्ये मॅग्नेशियम सल्फेट वापरल्याने कापूस पिकामध्ये हिरवळ वाढते आणि प्रकाश संश्लेषणाच्या प्रक्रियेस गती मिळते आणि शेवटी पिकांचे उत्पादन जास्त व गुणवत्तेत होते.

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मिरची रोपवाटिकेत वनस्पतींचे उपचार कसे करावे आणि त्याचे फायदे

How to do plant treatment in chilli nursery and its benefits
  • सर्व शेतकरी बांधवांना हे माहीत आहे की, रोपवाटिकेत मिरचीची पेरणी झाल्यावर मिरचीची पिके रोपवाटिकेत पेरली जातात, मुख्य शेतात मिरचीची लागवड केली जाते.

  • मिरचीची लागवड करण्याची पद्धत: पेरणीच्या 35 ते 40  दिवसानंतर मिरचीचा रोप लागवडसाठी तयार आहे. योग्य लागवडीची वेळ जूनच्या मध्यभागी ते जुलैच्या मध्यभागी असते. लावणी करण्यापूर्वी रोपवाटिकेत हलके सिंचन केले पाहिजे, असे केल्याने झाडाची मुळे फुटत नाहीत, वाढ चांगली होते आणि वनस्पती सहजपणे लागवड होते. जमीन जमिनीवर काढून टाकल्यानंतर ती थेट उन्हामध्ये ठेवू नये.

  • रोपांचे उपचार: रोपवाटिकेतून मिरचीची लागवड करून शेतात रोपण्यापूर्वी रोपांवर उपचार करणे फार महत्वाचे आहे. म्हणूनच, मुळांच्या चांगल्या विकासासाठी, एक लिटर पाण्यात प्रति लिटर 5 ग्रॅम मायकोरिझाच्या दराने समाधान तयार करा. यानंतर, 10 मिनीटे मिरचीच्या वनस्पतींची मुळे या द्रावणात बुडली पाहिजेत. ही प्रक्रिया अवलंबल्यानंतरच शेतात वृक्षारोपण करावे. लावणी झाल्यावर लगेच शेतात हलके पाणी द्यावे. मिरचीच्या रोपांची लागवड करण्यापासून ओळीपर्यंतचे अंतर 60 सेमी आणि वनस्पती ते रोपाचे अंतर 45 सेमी असणे आवश्यक आहे.

  • मायकोराइज़ामुळे वनस्पतींवर उपचार केल्याने झाडे सडण्यासारख्या समस्या उद्भवत नाहीत आणि मिरचीची लागवड मुख्य शेतात लावणीनंतर चांगली वाढण्यास मदत करते.

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कापूस पिकामध्ये पेरणीच्या कसे व्यवस्थापित करावे?

How to manage weed in 1-3 days of sowing in cotton crop
  • कापूस पिकामध्ये प्रामुख्याने तणांचा प्रादुर्भाव अनेक प्रकारात आढळतो, पावसाळ्याच्या पहिल्या पावसा नंतर त्याचा आक्रमण जास्त होतो.

  • कॉंग्रेस गवत / गाजर गवत, (बरमूडा घास), मोथा, संवा, बथुआ इत्यादी कापसामध्ये उगवलेली सामान्य तण

  • तण वायू, पाणी आणि पोषक तत्वांसाठी कापसाच्या पिकांशी स्पर्धा करतात आणि पिकांची वाढ रोखतात.

  • त्यांच्या नियंत्रणासाठी खालील तण वापरतात.

  • पाइरिथायोबैक सोडियम 10% ईसी + क्विज़ालोफ़ॉप इथाइल 5% ईसी 400 मिली / एकर पहिल्या पावसाच्या 1-3 दिवसानंतर किंवा फवारणीनंतर 3-5 दिवसानंतर करावी.

  • क्विजालीफॉप इथाइल 5% ईसी 400 मिली / एकर किंवा प्रॉपक्विज़फ़ॉप 10% ईसी 400 मिली / एकर सुकलेल्या पानांसाठी वापर करावा.

  • या तणनाशक कीटकांचा वापर केल्याने कापूस पिकाचे नुकसान होऊ शकते.

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पिकांमध्ये पांढर्‍या ग्रब किडीचा प्रादुर्भाव

White grub pest outbreak in crops
  • पांढर्‍या ग्रब्सची ओळख – पांढर्‍या ग्रब्स हे पांढर्‍या रंगाचे कीटक आहेत जे हिवाळ्यात सुप्तावस्थेत ग्रब म्हणून शेतात राहतात.

  • नुकसानीची चिन्हे – सहसा सुरुवातीच्या टप्प्यात ते मुळांना नुकसान पोहोचवतात. झाडावर पांढर्‍या ग्रब्सची लक्षणे दिसू शकतात, जसे की झाड किंवा रोप कोमेजणे, झाडाची वाढ आणि नंतर झाडाचा मृत्यू होणे हे त्याचे मुख्य लक्षण आहे.

  • व्यवस्थापन – या किडीच्या नियंत्रणासाठी जून महिन्यात आणि जुलैच्या पहिल्या आठवड्यात. मेटाराईजियम स्पीसिस [कालीचक्र] 2 किलो + 50-75 किलो एफ वाय एम/ शेणखत/कंपोस्ट प्रति एकर रिकाम्या शेतात फवारणी करा किंवा पांढर्‍या ग्रबच्या नियंत्रणासाठी रासायनिक प्रक्रिया देखील केली जाऊ शकते.

  • यासाठी फेनप्रोपाथ्रिन 10% ईसी [डेनिटोल] 500 मिली/एकर, क्लोथियानिडिन 50.00% डब्ल्यूजी (डेनटोटसु) 100 ग्रॅम/एकर या दराने मातीमध्ये मिसळून वापर करावा.

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बैंगन में अल्टरनेरिया लीफ स्पॉट की पहचान एवं निवारण के उपाय

Identification and prevention of Alternaria leaf spot in Brinjal

यह बैंगन में होने वाली यह एक गंभीर बीमारी है, जिसके संक्रमण से पत्तियों पर धब्बे बन जाते हैं। संक्रमण अधिक फैलने पर ये धब्बे अनियमित आकार के होकर आपस में मिल जाते हैं। प्रभावित पत्तियां कुछ समय बाद पीली होकर गिर जाती हैं। यह रोग पत्तियों के बाद धीरे-धीरे फलों को भी संक्रमित करने लगता है, जिससे फल पीले होकर समय से पहले गिर जाते हैं।

रोकथाम: इस रोग की रोकथाम हेतु खेत से पिछली फसल के अवशेष, खरपतवार, संक्रमित फल इत्यादि को एकत्रित कर के जला देना चाहिए। रोग के लक्षण दिखने पर, एम -45 (मैनकोजेब 75% WP) 400 ग्राम/एकड़ या ब्लू कॉपर (कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 50% WP) 300 ग्राम/एकड़ की दर 200 लीटर पानी में मिला कर छिड़काव करें। 

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