सोयाबीन में बढ़ेगा पीला मोजेक रोग, जानें नियंत्रण के उपाय
इस रोग की शुरूआती अवस्था में पतियों पर गहरे पीले रंग के धब्बे नजर आने शुरू होते हैं। ये धब्बे धीर धीरे फैलकर आपस में मिल जाते हैं। जिससे पूरी पत्ती हीं पीली पड़ जाती हैं। पत्तियों के पीले पड़ने के कारण अनेक जैविक क्रियांए प्रतिकुल रूप से प्रभावित होती हैं तथा पौधो में आवश्यक भोज्य पदार्थ का संश्लेषण नही हो पाता है। इस वजह से पौधों पर फूल कम आते हैं एवं फलियां लगती भी हैं तो उनमें दानों का विकास नही हो पाता हैं। सफेद मक्खी इस वायरस (विषाणु) के वाहक होते हैं और ये रोग को पूरे फसल में फैलाते भी हैं।
पीला मोजेक रोग पर नियंत्रण के उपाय
इस रोग के नियंत्रण के लिए प्रारंभिक अवस्था में ही अपने खेत में जगह-जगह पर पीला चिपचिपा ट्रैप लगाएं जिससे इसका संक्रमण फैलाने वाली सफेद मक्खी का नियंत्रण होने में सहायता मिले। इसके रोकथाम के लिए फसल पर पीला मोजेक रोग के लक्षण देखते ही ग्रसित पौधों को अपने खेत से बाहर निकाल दें। ऐसे खेत में सफेद मक्खी के नियंत्रण के लिए अनुशंसित पूर्व मिश्रित सम्पर्क रसायन जैसे स्पेर्टो (एसिटामिप्रिड 25% + बिफेन्थ्रिन 25% WG) 100 ग्राम प्रति एकड़ की दर से छिडक़ाव करें।
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सोयाबीन की फसल में तना मक्खी प्रकोप का ऐसे करें निदान
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इस कीट की मैगट सफेद रंग के तने के अंदर रहती हैं। व्यस्क कीट चमकीले काले रंग का दो मिलीमीटर आकार के होते हैं।
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इस कीट की मादा पत्तियों पर पीले रंग के अंडे देती हैं जिनसे मैगट निकलकर पत्तियों की शिराओं में छेद कर सुरंग बनाती हुई तने में प्रवेश करती है तथा तने को खोखला कर देती हैं।
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इसके कारण पौधे की पत्तियां शुरूआती अवस्था में पीली दिखाई देने लगती हैं और बाद में पूरा पौधा पीला पड़ जाता है।
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तना मक्खी से बचाव के लिए नोवालक्सम (लेम्बडासाइलोथ्रिन 9.5% + थायोमिथाक्सॉम 12.9 प्रतिशत ZC) 50 मिली प्रति एकड़ या कवर (क्लोरएन्ट्रानिलीप्रोल 18.5% SC) 60 मिली प्रति एकड़ का उपयोग करें।
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कापूस पिकामध्ये पांढऱ्या माशीचे नियंत्रण कसे करावे?
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या किडीचे अप्सरा (लहान मुले) आणि प्रौढ झाडाची फळे शोषतात आणि तिचा विकास थांबवतात हे कीटक बाल्याअवस्थेत आणि प्रौढ अवस्थेत दोन्ही कापूस पिकाचे मोठ्या प्रमाणात नुकसान करतात.
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या कीटकातून उत्सर्जित होणारा “मधुरस” काळ्या बुरशीच्या वाढीस मदत करतो. तीव्र बाधा झाल्यास संपूर्ण कापसाचे पीक काळे पडते व पाने जळलेली दिसतात.
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कधीकधी पीक पूर्ण विकसित झाल्यानंतरही या किडीचा प्रादुर्भाव झाल्याने कापूस पिकाची पाने कोरडे पडतात व खाली पडतात. विषाणूजन्य पर्णासंबंधी रोगाचा प्रसार होण्यासही या किडीचा महत्त्वाचा वाटा आहे.
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रासायनिक प्रबंधन: या कीटकांच्या नियंत्रणासाठी डायफैनथीयुरॉन 50% डब्ल्यूपी 250 ग्रॅम / एकर किंवा फ्लोनिकामिड 50% डब्ल्यूजी 60 मिली / एकर किंवा एसिटामिप्रीड 20% एसपी 100 ग्रॅम / एकर किंवा पायरीप्रोक्सीफैन 10% + बॉयफैनथ्रिन 10% ईसी 250 मिली / एकर दराने फवारणी करावी.
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जैविक व्यवस्थापन: या किडीच्या नियंत्रणासाठी बवेरिया बेसियाना 500 ग्रॅम प्रति एकर फवारणी करावी.